पिछले दो वर्षों में मानव संसाधन विकास मंत्रालय में रहते हुए स्मृति ईरानी की सक्रियता का एक आयाम यह रहा कि शिक्षा का भगवाकरण किए जाने की चर्चा बराबर होती रही। यानी स्कूलों के पाठ्यक्रम ऐसे बनाए जाएं जो हिंदुत्व की विचारधारा के अनुकूल पड़ते हों। इसका शंखनाद तो नई सरकार के सत्ता संभालने के साथ ही हो गया था जब विदेश-मंत्री सुषमा स्वराज ने गीता को राष्ट्रीय पुस्तक घोषित किए जाने की बात उछाली थी। हरियाणा स्कूल शिक्षा बोर्ड ने इसे स्वीकृति भी दे दी। अब इकतरफा कहलाने से बचने के लिए स्कूलों की पाठ्य-पुस्तकों में कुरान, बाइबिल आदि अन्य धर्म-ग्रंथों से भी छिटपुट संदर्भ शामिल करने की बात की जा रही है। तर्क यह दिया जा रहा है कि हमारे बच्चे अपने परंपरागत धार्मिक और सांस्कृतिक आदर्शों से जुड़े रहें। चाहे उन ग्रंथों में दिया गया बहुत कुछ हमारी वर्तमान परिस्थितियों में कोई अहमियत नहीं रखता। वह आज के संदर्भ में घातक भी सिद्ध हो सकता है।
अगर यह मान कर चलें कि शिक्षा अपने आप में ही धर्म और संस्कृति है, बशर्ते कि धर्म-संस्कृति को हम उनके रूढ़ अर्थों की जकड़न से बाहर रख कर देखें, तो क्या इसमें कुछ अनुचित या अपर्याप्त होगा? सच्चा और एकमात्र धर्म इंसानियत है जो इंसान को इंसान से जोड़ता है, जो हमें सभी मतभेदों को बातचीत से हल करने का विश्वास सौंपता है, हमारे भीतर अपना और दूसरे का हृदय-परिवर्तन करने की आस्था जगाता है। जो युद्ध और खूनखराबे के लिए उकसाने की बजाय जीवमात्र के लिए करुणा का संदेश देता है। अच्छी शिक्षा अगर किशोरों और युवाओं को सोच के इस उच्च धरातल तक ले जाने का काम करती है, तब धर्म और शिक्षा के बीच कोई खाई नहीं रहती।
धार्मिक पुस्तकों की प्रेरणादायक कहानियां, उनके चरित्र और देश के सांस्कृतिक जीवन का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रसंग वैसे भी किसी न किसी रूप में पाठ्य-पुस्तकों में शामिल होते ही आए हैं। बच्चे अपने पारिवारिक और सामाजिक परिवेश से भी धार्मिक संस्कार ग्रहण करते रहते हैं। अब तो धर्म के नाम पर चारों तरफ चल रहे हिंसा के तांडव को देखते हुए, चाहे वह कश्मीर घाटी में या कहीं पर भी हो, मैं यह महसूस करती हूं कि हम धार्मिकता के इस जुनून को कम करने का प्रयास करें। इस दिशा में आगे-आगे चलते जाने की बजाय अब थोड़ा-थोड़ा पीछे लौटने की बात सोचें। सरकारें भी बच्चों के बस्तों में उनकी सर्वसांझी ‘आम’ पुस्तकों को ही रहने दें। ‘खास’ पोथियां घरों, निजी दायरों या पुस्तकालयों की अलमारियों में सुशोभित रहें तो बेहतर होगा।
अभिभावकों को भी अब लीक से हट कर सोचना चाहिए। वे बच्चों से इंसानियत की बात करें और उन्हें अहसास कराएं कि पाठशाला ही उनका विद्यामंदिर है, इबादतगाह है और पाठ्य-पुस्तकें ही उनके पवित्र धर्मग्रंथ हैं जिनमें भरे ज्ञान के उजास से उनके दिल और दिमाग रोशन होते हैं।
’शोभना विज, पटियाला