अन्य पार्टी या संगठनों की तरह आम आदमी पार्टी के भीतर भी नेतृत्व का द्वंद्व आपसी टकराव में तब्दील होता दिखा है। 2013 के दिल्ली विधानसभा के चुनाव में ही इसके कुछ लक्षण दिखे थे, पर उसे समझने में वे लोग चूक गए जो आदर्शवाद से प्रेरित होकर व्यवस्था सुधारने के लिए ‘आप’ में आए थे।

वे यह नहीं समझ सके कि अरविंद केजरीवाल गैर-सरकारी संगठनों के बीच से निकले व्यक्ति हैं। गैर-सरकारी संगठन खुद ही वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था का एक उत्पाद है जो उसे आर्थिकी में किसी गुणात्मक परिवर्तन के खिलाफ सुरक्षा कवच या मुखौटा मुहैया कराता है।

दरअसल, वामपंथी दलों समेत सभी पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र का घोर अभाव है। इनकी संरचना नौकरशाही से मेल खाती है। मूल रूप से ये सभी पूंजीवादी संस्थाएं हैं। लोकतांत्रिक संगठन में दो बातों का होना आवश्यक है। एक, सभी सदस्यों को प्रश्न करने और जवाब पाने का अधिकार होना चाहिए और दूसरे, सभी स्तर पर ‘वापसी’ की व्यवस्था होनी चाहिए।

‘आप’ इसका अपवाद नहीं हो सकता। इसलिए ‘आप’ के जरिए जो वैकल्पिक राजनीति की ओर देख रहे हैं, वे एक भ्रम के शिकार हैं।

हमें यह भी समझना होगा कि वर्तमान रूप में संसदीय प्रणाली वास्तव में एक तानाशाही व्यवस्था की तरह काम करती है। संसदीय व्यवस्था में प्रतिनिधित्व के नाम पर जनता को अपनी सत्ता संसद को समर्पित कर देना होता है। यह सत्ता समर्पण अपनी गति धारण करता है, फिर संसद अपनी सत्ता बहुमत वाले दल को समर्पित करती है। फिर वह दल पूरी सत्ता अपने नेता को यानी प्रधानमंत्री को समर्पित कर देता है।

वैकल्पिक राजनीति के लिए संगत आर्थिकी की समझ जरूरी है। वांछनीय आर्थिकी को सबके स्वतंत्र विकास का वाहक बनना होगा यानी हरेक व्यक्ति के स्वतंत्र विकास को सुनिश्चित करने वाला होना होगा। इसके लिए कौन सरकार प्रतिबद्ध होगी? जाहिर है, विशाल बहुमत की सरकार ही ऐसा करेगी। लेकिन ऐसी सरकार का गठन कैसे होगा, यक्ष प्रश्न यही है जिसका जवाब हमें एकजुट होकर तलाशना होगा।

रोहित रमण ,पटना विवि, पटना

 

फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta

ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta