विचार और नीति से परे किसी व्यक्ति का महिमामंडन कर जब सिर-आखों पर बैठा लिया जाता है, तो बैठाने वालों को उसके दोष दिखाई नहीं देते। मसलन, कुछ चापलूस लोग नरेंद्र मोदी की तुलना विवेकानंद से कर रहे हैं तो कुछ महात्मा गांधी से। उनकी प्रवृत्ति को देखते हुए हिटलर से उनकी तुलना करने वाले भी कम नहीं हैं। प्रवृत्ति, घर-बाहर परिवेश, शिक्षा-दीक्षा, विचार, अनुभव आदि से गढ़े-मढ़े और चुने गए सरोकारों से जुड़ कर संस्कारों का विकास होता है। राजनीति सामूहिक प्रयास और समन्वित सोच से चलती है, लेकिन जब इसका संयोजन करने वाला ही सर्वेसर्वा हो जाता है तो उसका एंकागी सोच संगठन और सरकार का सोच बन तानाशाही में बदल जाता है। काल परिस्थितियों की अनुकूल बेला में प्रचार और प्रबंध क्षमता का संयोजन इच्छित मुकाम की ओर ले जाने में सहायक अवश्य बनता है। लेकिन मुकाम पर पहुंचने पर काम की कसौटी पर रख कर ही उसकी परख की जा सकती है। लोकसत्ता मनमानी से नहीं चलती और संविधान के दायरे में काम करती है। प्रधानमंत्री चाहे किसी भी दल या विचारधारा से चुन कर आए, उसका दायित्व संविधान के प्रति है, जिसकी वह और उसका मंत्रिमंडल शपथ लेता है।
कई बार अनपेक्षित बड़ी सफलता को करिश्मा मान लिया जाता है और उसके नायक को करिश्माई। इसके बाद महिमामंडन से सामूहिक विचार-विमर्श को हाशिये पर डालने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। यही प्रवृत्ति ससंदीय लोकतंत्र के लिए खतरा बनती हुई तानाशाही की ओर ले जाती है। अक्सर कथित करिश्माई अपनी व्यक्तिगत राय को जनता या देश की राय के तौर पर पेश कर देता है। आमजन में से भी एक हिस्सा मुद्दे की गहराई में गए या नतीजों की परवाह किए बिना उत्साह के साथ कथित करिश्माई नेता के साथ खड़े हो जाते हैं।
नरेंद्र मोदी का प्रस्तुतिकरण उनके सोच और समझ से कहीं दूर महिमामंडित होकर किया जाता रहा है। हम देख रहे हैं कि पद की गरिमा और उनके बोल में मेल नहीं है। रामलीला मैदान से दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए अपनी पार्टी के पक्ष में प्रचार करते हुए उनके बोल सुन कर ऐसा प्रतीत हुआ कि अपने भाषण में किसी को नक्सली और अराजक की संज्ञा देने से पहले उन्हें उसकी परिभाषा, पृष्ठभूमि और अपने पद के दायित्व का भान है भी या नहीं। कोई नक्सली क्यों बनता है? और नक्सली है तो जंगल में क्यों जाए? क्या प्रधानमंत्री का काम किसी को नक्सली या अराजक बनने के लिए प्रेरित करना है या उनकी समस्या की तह में जाकर उनका निराकरण कर उन्हें मुख्यधारा में लाने का है? धरना और विरोध प्रदर्शन करना क्या असंवैधानिक है या लोकतंत्र की आत्मा? क्या उनकी पार्टी ने कभी इनका उपयोग नहीं किया है?
ये पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्हें पूंजीपतियों के खिलाफ किसी का बोलना भी गुजरे जमाने की बात लगती है। वे पूंजीपतियों के हित में मजदूर से उसका संवैधानिक हक छीन सकते हैं और किसान से उसकी जमीन। वे दिल्ली में निजी क्षेत्र की बिजली कंपनियों द्वारा उपभोक्ताओं की जारी लूट खत्म करने की बात न कर उनकी पोर्टेबिलिटी पर व्याख्यान दे गए, जो लूट जारी रखेगी। जिस मोबाइल पोर्टेबलिटी का वे उदाहरण दे रहे हैं, उसके आने के बाद मोबाइल पर बात करने की दरें बढ़ गई हैं।
भारत में मोबाइल की शुरुआत निजी कंपनियों ने ही की थी। जब तक सरकारी भारत संचार निगम को प्रवेश नहीं मिला था, तब तक पंद्रह रुपए मिनट पर बात होती थी। लेकिन बीएसएनएल के आने बाद यह तीस पैसे प्रति मिनट तक चली गई। निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने की सरकारी नीयत और बीएसएनएल को अद्यतन उपकरण दिलाने में सहयोग न करने के चलते उसमें नेटवर्क कमजोरी से उसका बाजार घटता हुआ पंद्रह फीसद पर आ गया है। इसका फायदा उठाते हुए अब फिर से प्रति मिनट कॉल दर बढ़ती जा रही है। पोर्टेबिलिटी के लुभावने नारे सरकार की जिम्मेदारी से मुक्त निजीकरण को आगे बढ़ाने के तरीके हैं। इनका विरोध करने वाले कभी अराजक तो कभी नक्सली करार दिए जाकर किनारे कर दिए जाएंगे। प्रधानमंत्री मोदी के बोलों के संकेत तो यही कहते हैं। समझना जनता को है कि कौन है उसका हितैषी!
रामचंद्र शर्मा, तरूछाया नगर, जयपुर
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