अशोक लाल के सारगर्भित पत्र ‘बेचारे नरेंद्र भाई’ (चौपाल, 23 दिसंबर) ने तवलीन सिंह के लेख ‘विकास के बजाय’ (14 दिसंबर) पढ़ने को बाध्य किया। वर्षों तक जिस कलम की अनदेखी करता रहा उसमें मुझे काफी कुछ सही बातें नजर आर्इं। पहली तो यह कि प्रधानमंत्री अपने जनाधार को आरएसएस के हवाले कर रहे हैं। भले ही हकीकत यह हो कि आरएसएसएस और नरेंद्र मोदी में अंतर खोजना ही नादानी है।
दूसरी, वामपंथियों के प्रति तवलीनजी की नफरत तथ्यों की मोहताज नहीं है, अभिजात वर्ग के निहित स्वार्थों के लिए यह जरूरी भी है। तीसरी, यह कि चुनाव अभियान के दौरान कोई और मुद्दा नहीं था, ‘मुद्दा थे मोदी खुद’। यहां केवल छोटा-सा सवाल है कि सवा सौ करोड़ आबादी वाले देश में यदि एक ही व्यक्ति मुद्दा हो तो इसे कितना जनतांत्रिक कहा जा सकता है? जन के मुद्दों की अनदेखी कर सब कुछ व्यक्ति केंद्रित करने की बीमारी नई नहीं है। यह तो सत्तर के दशक में इंदिरा गांधी ने कम से कम कांगे्रस में स्थापित कर ही दी थी। कोई अब यह न पूछे कि इस बीमारी को कोसने वालों ने ही इसे गले क्यों लगा लिया? चौथी बात, जिसका तहेदिल से स्वागत करते हुए तवलीनजी का आभारी हूं कि ‘रामजादे हरामजादे फेम’ साध्वी और उनके बंधु साक्षी महाराज दोनों भगवा पहने हैं सो ‘उनकी जगह होनी चाहिए दूर हिमालय की किसी गुफा में, संसद में नहीं’।
तवलीनजी से निवेदन है कि कभी-कभार अपनी लेखनी का इसी तरह सदुपयोग करते हुए यह बताती रहें कि साक्षी महाराज और साध्वी सहित सभी भगवाधारी संत, महंत, साधु, संन्यासी, योगी आदि-आदि संसदीय राजनीति के लिए कितने घातक हैं? पांचवीं यह कि अपशब्द कहने के बाद साध्वी और साक्षी महाराज ने भले ही क्षमा मांग ली हो ‘लेकिन कुछ बातें ऐसी हैं जिनके लिए क्षमा मांगी नहीं जा सकती’। और भी अच्छा होता यदि यह भी लिख देतीं कि न ही क्षमा किया जाएगा। छठी अच्छी बात यह कि संघ परिवार के समर्थन से संसद के बाहर हिंदुत्ववादी सांसदों और संघ परिवार ने हिंदुत्व का एक नया आंदोलन खड़ा कर दिया है।
हालांकि बखेड़ा खड़ा किया है कहना ज्यादा मुफीद होता। यह भी कि घर वापसी के नाम पर उत्तर प्रदेश की गरीब बेहाल बस्तियों में धर्म परिवर्तन कराया जा रहा है, जबकि सनातन धर्म में धर्म परिवर्तन का सवाल ही नहीं है। यह भी कि धर्म परिवर्तन कराने वाली हिंदुत्ववादी संस्थाएं झूठे वायदे करके जिन्हें ‘घर वापस’ लाना चाह रही हैं उनका ज्यादा नुकसान किया है। सातवीं, प्रशासनिक और आर्थिक सुधारों की बात होनी चाहिए जबकि उसकी जगह गोमूत्र के लाभों और धर्म परिवर्तन की बातें होने लगीं। आठवीं बात यह कि ‘राजनीतिक और आर्थिक मामलों में आरएसएस की कोई जगह नहीं होनी चाहिए जब भी इनका दखल हुआ है खराबी आई है।’ नौवीं यह कि ‘आरएसएस के विचार इतने पुराने हैं कि इनमें आधुनिकता नहीं लाई जा सकती।’ दसवीं, ‘मोदी सरकार आने के बाद आरएसएस ने अपना पहला हस्तक्षेप किया शिक्षा क्षेत्र में’। संस्कृत भाषा के संदर्भ में तवलीनजी ने सही ही कहा है कि ‘आरएसएस जैसी’ सांस्कृतिक संस्थाओं ‘के अपरिवर्तनीय विचारों से भारतीय संस्कृति को खतरा तो है ही लेकिन ज्यादा खतरा है राजनीति को’।
तवलीनजी की ये दस बातें फिलहाल तो धर्म के दस लक्षण या ‘टेन कमांडमेंट्स’ से कम नहीं लग रहीं हैं। इस मामले में अच्छा यह है कि ये बातें मोदीजी के आलोचकों की तरफ से नहीं बल्कि उनकी परम हितैषी की ओर से आई हैं जिनका स्वागत है, भले ही मोदी के दकियानूसी अंधभक्त होने की छाप से बचने के लिए ही क्यों न लिखा हो। यह भी हो सकता है कि नवउदारवादी पूंजीवादी लॉबी को डर सता रहा हो कि ऐसा न हो कि आरएसएस और उसकी धर्म ध्वजा के वाहक हिंदुत्व के पैरोकार उनके किए-धरे पर पानी न फेर दें।
श्याम बोहरे, बावड़ियाकलां, भोपाल
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta