अलका कौशिक का लेख ‘संसार के पार संसार’ (दुनिया मेरे आगे, 5 अगस्त) पढ़ा। उन्होंने सही कहा कि विषम परिस्थितियों के चलते ही हर कोई चलता-फिरता लद्दाख और स्पीति नहीं पहुंच पाता है। शुक्र है, वरना यह स्वर्ग भी नेस्तनाबूद कर देते हम मानव।

इस इलाके में मैंने दो पैदल यात्राएं की हैं, मनाली (दार्चा) से करगिल और लेह से सोकर झील तक। उन गांवों में रहा जो नक्शे में नहीं, ऐसे लोगों से मिला जो शायद गिनती में भी नहीं। उन जगहों से भी गुजरा जिनकी पर्यटन नक्शे पर पुरजोर उपस्थिति है और जिनकी बिना पर कह सकता हूं कि अब वहां की जमीनी परिस्थितियां तेजी से बदल रहीं हैं (जबरन बदली जा रहीं हैं)। वाहनों की संख्या तेजी से बढ़ रही है।

शांति के लिए जानी जाने वाली वादियां कानफोड़ू आवाजों से डर कर रह-रह लरज उठतीं हैं। बेमौसम बारिश भी होने लगी है। संस्कृति के ठेकेदार अपमिश्रण करने के लिए कमर कस कर शाखाएं लगाने लगे हैं और ‘ट्रेवल पोर्टल’ वाले थोक के भाव पर्यटक यहां हर वर्ष पटक रहे हैं।

लेह बाजार में तिब्बती चाय (जिसमें याक के दूध से बना मक्खन हो) और छंग गायब-सी हो गई है। होटल तिब्बती व्यंजन परोसने से गुरेज करने लगे हैं क्योंकि ‘जैन फूड’ परोसने वालों को ही डॉट कॉम पोर्टल वाले यात्री देते हैं। वहां के लोग बोलते कम हैं, यहां के लोग कुछ बोलते ही नहीं। इसी शांति का लाभ उठा बाजार के ठेकेदारों ने विकास की बलिवेदी पर एक अतिविकसित संस्कृति की गर्दन फंसा दी है।

अजय सोडानी, कालिंदी कुंज, इंदौर

 

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