‘अरावली के जख्म’ संपादकीय (21 अप्रैल) जिस चिंता को व्यक्त करता है वह सर्वव्यापी और सर्वग्रासी है। क्या जब सभी नदियां सूख जाएंगी या औद्योगिक और नगरीय प्रदूषण से बर्बाद हो जाएंगीं, सब पहाड़ खोद डाले जाएंगे, घास का आखिरी तिनका और आखिरी पत्ती भी नदारद हो जाएगी, पूरी मिट्टी कंकरीली और पथरीली हो जाएगी, तभी समझ में आएगा कि हमें खाने-पीने के लिए और जिंदा रहने के लिए स्मार्ट सिटी, बुलट ट्रेन, जगमगाते शापिंग मॉल के अलावा सांस लेने के लिए शुद्ध हवा, साफ पानी और अनाज के दाने भी चाहिए? राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण और सर्वोच्च न्यायालय की अनदेखी कहां ले जाएगी? इसके लिए कोई किसी गंभीर शोध या अध्ययन की दरकार नहीं है। गांधी की समाधि पर फूल और तस्वीरों पर माला चढ़ाने का पाखंड बंद कर उनकी कही एक बात को समझ लें कि ‘प्रकृति सभी की जरूरतों को तो पूरा कर सकती है, पर एक भी इंसान के लालच को नहीं।’
श्याम बोहरे, बावड़ियाकलां, भोपाल

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