पिछले दिनों अलवर स्टेशन पर उतर कर अपना सामान (दो अटैची और एक बैग) लेकर जैसे ही मैं और मेरी श्रीमतीजी ट्रेन से उतरे और निकास द्वार की ओर बढ़ने लगे तो प्लेटफार्म पर पहले से खड़े एक महानुभाव सहसा मेरी तरफ बढ़ आए और मेरे हाथों से दोनों अटैचियां लेकर हमारे आगे-आगे हो लिए। इससे पहले कि मैं पूछूं कि आप कौन हैं भाई साहब? वे बोले, ‘आप रैणा साहब हैं न?’ अटैचियां वजनदार थीं। एक को एक हाथ में और दूसरी को दूसरे हाथ में उठाकर वे चले जा रहे थे।
मैंने खूब कहा कि दोनों अटैचियों में पहिये लगे हुए हैं, क्यों इन्हें ढोने का कष्ट उठा रहे हैं? उन्होंने जैसे कुछ नहीं सुना और प्लेटफॉर्म के बहार ऑटो स्टैंड पर ही जाकर रुक गए। हम दोनों को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि यह शख्स आखिर कौन हो सकता है? ऑटो वाले से इन्हीं सज्जन ने पैसे भी तय किए। इससे पहले कि मैं एक बार फिर पूछूं कि भाई साहब…? वे बोले, ‘आपको याद नहीं होगा, मगर मुझे आप अच्छी तरह से याद हैं। मैं आपका बहुत पहले स्टूडेंट रहा हूं। फिर लेक्चरर बना और पिछले महीने ही प्राचार्य पद से रिटायर हुआ। जिस ट्रेन से आप आए, उसी ट्रेन से मैं किसी को छोड़ने आया था।’
हम दोनों ऑटो में बैठ गए। रास्ते भर मैं सोचता रहा कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली पर आए दिन यह दोष मढ़ना कि यह महज किताबी ज्ञान देती है, अच्छा इंसान नहीं बनाती, क्या सचमुच सही है? या फिर यह घटना अपवाद-मात्र कहलाएगी?
शिबन कृष्ण रैणा, अलवर
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