सत्ता-परिवर्तन के तुरंत बाद सत्तारूढ़ पार्टी के साथ किसी भी तरह से जुड़े छोटे-बड़े नेता, कार्यकर्ता, हितैषी आदि का यह सोचना सहज-स्वाभाविक है कि नई सरकार से उसे कुछ ‘प्रसाद’ अवश्य मिलना चाहिए। दरअसल, उसका मन कहता है कि उसी की मेहनत, लगन अथवा सदिच्छाओं की वजह से सत्ता-परिवर्तन हुआ है, लिहाजा बड़ा पद न सही, उसके छोटे-मोटे काम तो होने ही चाहिए। सत्तापक्ष के लिए परेशानी यहीं से शुरू हो जाती है। सत्ता प्राप्त करने के बाद संतुष्टों/असंतुष्टों और सत्ता-लोलुपों के बीच सामंजस्य बिठाना कोई बाएं हाथ का खेल नहीं है।
देखा जाए तो हर पार्टी की मजबूरी यह रहती है कि उसे ऐसे सेवाभावी और समर्पित कार्यकर्ताओं के लिए पहले जगह निकालनी पड़ती है जो समय-असमय या फिर दुर्दिनों में भी पार्टी के साथ एकनिष्ठ रहे हों। जिन्होंने पार्टी के आह्वान पर धरने दिए हों, डंडे खाए हों, सभा-सम्मेलनों में जाजम बिछाई/ समेटी हों या फिर जेल गए हों, आदि। सत्ता में परिवर्तन ऐसे ही लोग लाते हैं और फिर बाद में ऐसे ही लोग पुरस्कृत भी होते हैं। बिना सुदृढ़ राजनीतिक पृष्ठभूमि या सेवाभाव वाले ‘भद्रजन’ अपने मतलब के लिए जैसे अचानक अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं, वैसे ही हाशिये पर भी डाल दिए जाते हैं।
शिबन कृष्ण रैणा, अलवर
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