लोकसभा चुनाव 2014 में बात सिर्फ सत्ता परिवर्त्तन की नहीं थी। बात थी सपनों, आशाओं और अच्छे दिनों की। चाहे उत्तर प्रदेश हो या बिहार, इस बार उस तबके ने भी भाजपा को दिल खोल कर वोट किया जिसने शायद पहले कभी भाजपा के पक्ष में इतना ज्यादा विश्वास नहीं दिखाया था। इस तबके में हैं आम आदमी या कहें मध्यवर्ग और गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोग जिन्हें बच्चों की स्कूल फीस से लेकर घर-खर्च के लिए प्रतिदिन माथापच्ची करनी पड़ती है।

इन्होंने देखा था एक सुनहरा स्वप्न जो इन्हें ‘अच्छे दिन-अच्छे दिन’ कह कर दिखाया गया था। लेकिन पिछले ग्यारह महीनों में मोदी सरकार के फैसलों की सबसे ज्यादा मार इन्हीं पर पड़नी है, या कहें तो इस तबके को ही इन फैसलों को सहन करने में सबसे ज्यादा परेशानी झेलनी होगी।

दो प्रतिशत सरचार्ज स्वच्छ भारत अभियान के लिए सेवा कर में जुड़ेगा। रेल भाड़े में चौदह प्रतिशत बढ़ोतरी। बजट 2015 में सेवा कर में बढ़ोतरी। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें घटने के बाद भी कई बार डीजल और पेट्रोल पर लगने वाले कर में बढ़ोतरी। स्पेक्ट्रम नीलामी में बड़ी बोलियां लगने से कॉल और डेटा रेट बढ़ने की आशंका। कर छूट की सीमा बढ़ाने से मुकरना। दस रुपए में प्लेटफॉर्म टिकट। माल भाड़े में बढ़ोतरी, आदि।

माना कि ये फैसले सभी वर्गों पर लागू होंगे, लेकिन तय है कि इनका सबसे ज्यादा (प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष) असर आम आदमी पर ही पड़ना है। इन फैसलों के पीछे सरकार का सोच अब साफ समझ में आता है कि ‘जनता के पास पैसा बहुत है, जेब से निकलवाओ’। यह नजरिया किसी का भी बन सकता है अगर हम केवल यह देखें कि ‘इस देश में तीन प्रतिशत के करीब लोग ही आयकर अदा करते हैं’। लेकिन कोई नजरिया बनाने या फैसला लेने से पहले यह भी देखना चाहिए कि मध्यवर्ग को वेतन टैक्स कटने के बाद मिलता है, और निम्न मध्यवर्ग या गरीबी रेखा से नीचे के लोगों की इतनी आय ही नहीं होती कि वे आयकर के दायरे में आएं। फिर ये लोग ऐसे फैसलों की मार क्यों सहें?

आयकर कौन नहीं देता, कौन इसे देने में आनाकानी करते है या कौन आयकर की चोरी करते हैं हमारी सरकार यह अच्छी तरह जानती है। फिर ऐसे फैसले क्यों लिए जा रहे हैं? नियंता ऐसे नियम क्यों नहीं बनाते जिनसे कि पैसा उन्हीं लोगों की जेब से निकाला जाए, जिनकी जेबें भरी हुई हैं या जो धन्ना सेठ टैक्स की चोरी करते हैं।

उद्योगपतियों पर मेहरबान इस सरकार ने कॉरपोरेट टैक्स में कटौती की। मोदी सरकार पर उद्योगपतियों पर मेहरबानी के आरोप यों ही नहीं लगते, समय-समय पर इस सरकार के फैसले इन आरोपों का सत्यापन करते हैं। इसके फैसले बताते हैं कि लोकसभा चुनाव के बाद से आम आदमी और किसानों से मोदी की दूरियां भी बढ़ती ही जा रहीं हैं। सरकार ने स्वास्थ्य सेवा पर खर्च में पंद्रह फीसद की कटौती की। ग्रामीण विकास विभाग के बजट में दस फीसद की कमी की गई। महिला और बाल विकास मंत्रालय का बजट घटा कर आधा कर दिया गया है।

लगता है अच्छे दिनों का सपना दिखाने वाले मोदीजी एक ऐसे ‘चाय वाले’ थे जो कभी रेलवे की ‘सामान्य टिकट खिड़की’ से लेकर ‘सरकारी राशन’ की लंबी कतारों में नहीं लगे। अन्यथा आम आदमी के दर्द और ऐसे फैसलों से आम आदमी को होने वाली पीड़ा को जरूर समझते!
अभय शर्मा, जामिआ, नई दिल्ली

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