कभी-कभी खुद पर हैरानी होती है कि इतने ज्यादा प्रचलित, खास तौर पर सरकारी तंत्र द्वारा प्रचारित-प्रसारित किए जाने वाले शब्दों के मायने मुझे क्यों समझ में नहीं आते। मसलन, ‘विकास’ शब्द को ही लें। बचपन से इसे सुनते हुए बाल सफेद हो गए, लेकिन विकास किस चिड़िया का नाम है यह अभी तक नहीं समझ पाया। बचपन में स्कूली किताबों में पढ़ाया जाता था कि भारत एक विकासशील देश है। ‘विकासशील’ शब्द का मतलब भी समझ में नहीं आता। आज विकास को मापने के लिए सकल घरेलू उत्पादन और प्रतिव्यक्ति आय के पैमानों पर सबसे ज्यादा जोर दिखता है, हालांकि ‘मानव विकास सूचकांक’ के बारे में भी कभी-कभार सुनाई पड़ता है। एक बात तो यह समझ में नहीं आती कि विकास को मौद्रिक पैमाने पर मापना कितना उचित है? इस पर भी प्रति व्यक्ति आय की गणना सकल घरेलू उत्पादन में जनसंख्या का भाग देकर प्राप्त औसत के आधार पर की जाती है।
अमीर-गरीब के बीच गहरी खाइयों का कोई जिक्र नहीं। लेकिन जिस समाज में संसाधन मुट्ठी भर लोगों के हाथों में सीमित रहते हैं और अभावों से भरे महासागर में समृद्धि के थोड़े से द्वीप होते हैं वहां सुख-शांति नहीं रह पाती, यहां तक कि समृद्धि के टापुओं में बसने वाले भी सुरक्षित नहीं रह पाते। पिछले करीब तीस सालों से नॉर्वे में रह रही एक महिला ने निजी विमर्श में बताया कि वहां की सुख-शांति का प्रमुख कारण यही है कि वहां लोगों के जीवन-स्तर में वैसा भारी अंतर नहीं है जैसा भारत में दिखता है।
सबका विकास होना चाहिए तभी वह टिकाऊ होगा। विकास में समग्रता और संतुलन का होना भी आवश्यक है। कुछ साल पहले हमने उत्तराखंड में ग्रामीण समुदायों के साथ कार्य कर रहे अनेक लोगों से ‘विकास’ की उनकी समझ के बारे में पूछा था। ज्यादातर ने जीवन की गुणवत्ता बढ़ने को प्रमुख पैमाना माना। एक ज्यादा पढ़ी-लिखी महिला ने कहा था, ‘जिस दिन मैं अपने घर का कूड़ा, अपने पड़ोसी के घर में या सड़क पर नहीं फेंकूंगी, उस दिन से अपने को विकसित समझूंगी।’ सरकारें विकास की चर्चा करती हैं तो अलग मतलब होता है।
इन दिनों किसानों का मुद्दा चर्चा में रहा है। वैसे देश में छह दशक तक राज करने वाली कांग्रेस और मई 2014 में तीसरी बार केंद्र की सत्ता में आई भाजपा, दोनों ही किसानों के विकास की बातें कहती हैं, लेकिन एक-दूसरे पर किसान-विरोधी का आरोप लगाती रहती हैं। यह समझ में नहीं आता कि ‘किसान विकास पत्र’ का खेती-किसान के विकास से सचमुच में क्या लेना-देना है। इनमें निवेश करने वाले भी ज्यादातर नौकरी या व्यापार करने वाले होंगे। मोदी सरकार इन्हें फिर लेकर आई है और पेन नंबर की बाध्यता भी नहीं है। लोग अपना कालाधन इनमें निवेश कर सकेंगे, लेकिन इनमें कर्ज के बोझ तले दबे वे किसान तो नहीं शामिल हो सकते जो बेमौसम बारिश के कारण पकने को तैयार रबी की फसल बर्बाद होने के सदमे में आत्महत्या कर रहे हैं। क्या किसान विकास पत्र वाकई किसानों के लिए है?
मौजूदा सरकार 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन के लिए हड़बड़ी में अध्यादेश लेकर आई और संसद में इसे विधेयक का रूप देकर पारित कराने के लिए अड़ी हुई है। प्रधानमंत्री किसानों से मन की बात कहते हैं कि सरकार उनकी भलाई के लिए ही यह सब कर रही है। समझ में नहीं आता कि यह किसके मन की बात है? प्रधानमंत्री, किसानों या उद्योगपतियों के मन की? भारतीय किसानों की कमजोर आर्थिक दशा के बावजूद उनसे खेती में नए-नए प्रयोग करने की अपेक्षाएं की जाती हैं, लेकिन विफल होने पर नुकसान की भरपाई करने की जिम्मेदारी कौन लेता है? उदाहरण के लिए, पारंपरिक फसलें कम जोखिम (कम बारिश या प्रतिकूल जलवायु को सहने में ज्यादा सक्षम होती हैं) और कम लागत वाली होती हैं। लेकिन किसान को ज्यादा मुनाफे वाली नकदी फसलें उगाने के लिए प्रेरित किया जाता है जिनमें पूंजी निवेश भी अधिक होता है और जोखिम भी (इन दोनों की समुचित व्यवस्था किसान के लिए नहीं है)। जो किसान आत्महत्या कर रहे हैं, वे पारंपरिक फसलें उगा रहे हैं या साहूकारों/बैंक से कर्ज लेकर ज्यादा निवेश वाली, क्या इस बारे में अध्ययन हुए हैं?
कमल जोशी, अल्मोड़ा
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