आज की उपभोक्तावादी संस्कृति का बहुत गहरा असर हमारे बच्चों पर भी पड़ रहा है। एक तरफ आधुनिकता की चकाचौंध भरी जिंदगी तो दूसरी तरफ इस चमकती दुनिया में खुद को स्थापित करने और कामयाब बनने की चुनौती। एक अनवरत चलती दौड़, जिसका शायद ही कोई अंत हो। इस रेस में आपको आना पहले स्थान पर ही है, दूसरे, तीसरे या अंतिम स्थान की तो कोई गुंजाईश ही नहीं है! माता-पिता यही सब सोच कर बच्चे को अपनी हैसियत से भी ज्यादा महंगे स्कूलों में पढ़ाते हैं कि एक दिन वह भी पहले पायदान पर पहुंच जाएगा और उनका नाम रौशन करेगा। इसी सोच का परिणाम होता है कि अभिभावक अपनी उम्मीदों का बोझ बच्चों के नाजुक कंधों पर डाल देते हैं।
कुछ बच्चे होते हैं जो इन उम्मीदों पर खरे उतरते हैं, पर कुछ ऐसे भी होते हैं जिनके लिए यह सब संभालना उतना आसान नहीं होता जितना अक्सर हम समझ लेते हैं। इन उम्मीदों का ही परिणाम होता है कि अगर हमारे बच्चे के अंक कम आए तो हम उसे समवर्गीय अन्य बच्चों को देखने और उनसे सीखने के लिए कह देते हैं या किसी दूसरे जैसा बनने की सीख देने लग जाते हैं। अगर इतने पर भी संतोष नहीं होता तो हम उनकी तुलना अपने परिवार के उनसे भी छोटे बच्चों से करने लग जाते हैं।
यही वह पल होता है जब हम पहली बार किसी बच्चे के मन में नकारात्मकता के बीज बोते हैं। उन्हें लगने लगता है जैसे उनका कोई अस्तित्व नहीं, वे कुछ कर ही नहीं सकते। यह तो बस शुरुआत होती है। जब खराब प्रदर्शन पर बच्चों को कोसा जाएगा तो उनका प्रदर्शन और भी खराब होता जाएगा और नकारात्मकता हावी होती जाएगी। फिर इस नकारात्मकता के बीज से उनके मन में, भय, अविश्वास, आत्मविश्वास की कमी, असुरक्षा, संकोच, शक, जीतने से ज्यादा हारने का डर, हीनता, अवसाद जैसे मानसिक विकारों का जन्म होगा। और अंतत: कहीं आपसे दूर होकर वे कोई अपनी ही दुनिया न बसा लें या आत्महत्या की ओर बढ़ जाएं। अगर आत्महत्या नहीं कर पाए तो अंतमुर्खी अवश्य हो जाएंगे। बच्चा खुद के अंदर घुट-घुट कर जिएगा तो जरूर पर किसी और को अपने अंदर चल रही समस्याओं से अवगत कराने में असमर्थ होगा।
यह नकारात्मकता अक्सर इंसान के वर्तमान और भविष्य को निगल जाती है और दुर्भाग्य से आज हम अपने बच्चों को अनजाने में ही सही, लेकिन उसी अंधेरी गुफा में धकेल रहे हैं। इसलिए मां-बाप को अपने बच्चों को सकारात्मक बनाना होगा। वे उन्हें किसी और के जैसा बनने की सीख देने के बजाय खुद कुछ नया और अच्छा करने की सीख दें, अपने ऊपर भरोसा करना सिखाएं। उन्हें कहें कि वे जैसे हैं बहुत अच्छे हैं, उन्हें किसी दूसरे जैसा बनने की जरूरत नहीं। उन्हें प्रोत्साहित करें, हतोत्साहित नहीं।
विमल ‘विमर्या’, देवघर, झारखंड</strong>