सय्यद मुबीन जेहरा ने ‘पढ़ाई में भटकाव के रास्ते’ (समांतर संसार, 12 अप्रैल) में जिस चिंता और सरोकारों के साथ बात कही है वह प्रशंसनीय है। शिक्षा में बदलाव की बात से भी कोई इनकार नहीं कर सकता, पर किस तरह का बदलाव और किस तरीके से प्रभावी बदलाव हो इस पर बहुत बुनियादी काम की जरूरत है। काम हुआ भी है। अनेक संस्थाएं वर्षों से यही काम कर रही हैं। यह बात भी सच है कि उनका प्रभाव बहुत ही सीमित रहा और मुख्य धारा को प्रभावित नहीं कर सका। अनेक रास्ते हो सकते हैं, जरूरी नहीं कि कोई सर्वमान्य रास्ता ही हो, बल्कि न हो तो अधिक अच्छा होगा जिससे नए-नए तरीके खोजने और विकसित होने की गुंजाइश बनी रहेगी।
वैसे तो लेख में अनेक बिंदु शामिल हैं, और भी किए जा सकते हैं। यहां केवल मूल्यों को लेकर संक्षिप्त टिप्पणी ही की जा सकती है। जहां तक जीवन मूल्य विकसित करने का, सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक नीतियों और हमारे चारों ओर प्रचलित मान्यताओं, परंपराओं और जीवन जीने का मामला है, विषमतावादी सामाजिक-आर्थिक नीतियों के चलते समतावादी मूल्य कैसे विकसित किए जा सकते हैं? उदाहरण हमारे सामने है। भारत के संविधान की उद्देशिका में तो समता, पंथनिरपेक्षता, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की बात कही गई है। इसे पढ़ाया भी जाता है, हम इसे याद करके, समझ करके परीक्षाओं में पास होकर ‘सफलताएं’ हासिल करते आए हैं, पर राज्य की करतूतों के और सामाजिक पाखंड के चलते हम इनसे दूर ही होते जा रहे हैं। वर्तमान निजाम में तो यह दूरी तीव्र गति से बढ़ाने के जतन किए जा रहे हैं। अब संविधान में दिए मूल्यों को स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई से कैसे विकसित किए जा सकता है?
हमारे धार्मिक और सामाजिक रीति रिवाज पुरुषवादी हैं। ऐसे में महिला-पुरुष समानता का कौन-सा पाठ बराबरी के मूल्य स्थापित करने में हमारी मदद करेगा और कैसे? अशिक्षित या अल्प शिक्षित आदिवासी समाज शिक्षित और उच्च शिक्षा प्राप्त समाज से अधिक समतावादी मूल्यों के साथ क्यों जीता है? तुलनात्मक रूप से अधिक ईमानदार कैसे है? कम लालची क्यों है?
हमारे गुरुकुल और मदरसे कुछ जीवन मूल्य स्थापित करने की कोशिश जरूर करते रहे होंगे पर क्या वे सर्वसमावेशी थे? क्या हम गुरुकुल और मदरसे जिस समाज में ‘सफलतापूर्वक’ शिक्षा प्रदान कर रहे थे, वहां आज जाना चाहेंगे? यदि उन्हें श्रेष्ठ मान भी लिया जाए तो उन अति सीमित प्रयोगों को व्यापक पैमाने पर कैसे ले जाएं?
जाहिर है, जीवन मूल्यों को विकसित करने की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता जो स्कूली पढ़ाई-लिखाई से कम और राज्य की नीतियों, उसके काम करने के तरीके और हमारे सामाजिक पाखंड से ज्यादा ताल्लुक रखते हैं।
श्याम बोहरे, बावड़ियाकलां, भोपाल
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