राजनीति के यज्ञ में हर नेता पूर्णाहुति के बाद प्रसाद की कामना करता है। जब उसे वह नहीं मिलता है तो उसका रुष्ट होना स्वाभाविक है। सुना है, कोई मलाईदार पद न मिलने के कारण पीडीपी प्रवक्ता समीर कौल ने त्यागपत्र दे दिया है। भले ही पीडीपी और भाजपा संगठन के विरोध में और अपने पक्ष में वे कुछ भी सफाई देते फिरें, सवाल है कि पीडीपी और भाजपा की सरकार बनते ही उन्होंने उसूलों के आधार पर तब तुरंत त्यागपत्र क्यों नहीं दिया?

वैसे, टाइम्स नाउ के कार्यक्रम में मैंने अक्सर डॉ कौल को अर्णव गोस्वामी के सामने बगलें झांकते ही पाया। कश्मीरी विस्थापितों के पक्ष में या फिर कश्मीर मामलों में भी वे दबंगपने से कभी कुछ नहीं बोले, शायद अपनी अंतरात्मा की आवाज से ज्यादा उन्हें उस समय पीडीपी के उसूल प्यारे थे जो अब उन्हें नागवार लग रहे हैं। यों लगता है कौल साहब ने पार्टी से कुछ ज्यादा ही सौगात/ पत्रपुष्प पाने की अपेक्षा रखी होगी जिसे पूरी होते न देख वे बिदक गए। निष्काम सेवा या कर्म, ये शब्द आजकल मात्र कोश में रह गए हैं।
शिबन कृष्ण रैणा, अलवर

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