उन्नीस अप्रैल के अंक में अपूर्वानंद का आलेख ‘तुच्छता का परिवेश’ पढ़ा। लगा कि तुच्छता और उदात्तता के विधायक विश्लेषण के लिए यह आलेख नहीं लिखा गया, बल्कि इस शीर्षक के बहाने कुछ लोगों को कठघरे में खड़ा करने के लिए इस आलेख का ताना-बाना बुना गया है।

विशेष उल्लेखनीय यह है कि विद्वान लेखक ने महात्मा गांधी को भी नहीं बख्शा। लेखक को लगता है कि भारतीय समाज को स्थायी रूप से विभक्त करने के लिए साम्राज्यवादी अंगरेज ने जिस ‘कम्युनल अवार्ड’ की घोषणा की थी, महात्माजी का उसके खिलाफ अनशन ‘तुच्छता’ का परिचायक था। यह भी माना गया कि यह उपवास अंगरेज की ‘कम्युनल अवार्ड’ नीति के खिलाफ नहीं बल्कि डॉ आंबेडकर के खिलाफ था। तो क्या लेखक यह मानते हैं कि ‘कम्युनल अवार्ड’ अंगरेज की उदात्त भावना का प्रतीक था और गांधी का अनशन क्षुद्रता का?

इसी प्रकार पट्टाभि सीतारमैया के चुनाव के दौरान भी लेखक को गांधीजी की क्षुद्रता दिखाई दी। संभवत: महात्मा गांधी ने कभी सुभाष बाबू के खिलाफ और पट्टाभि के पक्ष में कोई वक्तव्य चुनाव के दौरान नहीं दिया था। चुनाव के बाद जब पट्टाभि हार गए तब गांधीजी ने वक्तव्य दिया ‘पट्टाभि सीतारमैया की हार मेरी हार है।’ क्या यह सत्य नहीं था, क्योंकि कांग्रेस में जो गांधीवादी माने जाते थे उन्होंने पट्टाभि सीतारमैया को चुनाव में खड़ा किया था और उनको मत देने का आग्रह भी किया था।
गांधी ने कभी किसी को पट्टाभि को मत देने का आग्रह नहीं किया, तो भी यह एक अंतर्निहित सत्य था कि यह गांधी की हार थी। इसे गांधी ने सहजता से स्वीकार कर सार्वजनिक वक्तव्य दिया, यह उनकी उदात्तता थी या क्षुद्रता?

विद्वान लेखक को जानना चाहिए कि गरिमा संपन्न शब्दों के आवरण में लपेट कर कही जाने से क्षुद्रताएं छिपती नहीं हैं।
डॉ महेश चंद्र शर्मा, एकात्म मानवदर्शन अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान, नई दिल्ली

फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta

ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta