शीतला सिंह ने ‘कृषि संकट की जड़ें’ (19 अप्रैल) लेख में खेती-किसानी पर आए संकट का सतही विश्लेषण किया है। इतना ही नहीं, उन्होंने लेख में जो समाधान दिए वे भी परंपरावादी किस्म के रहे। फिर लेखक खुद को मोदी-विरोधी साबित करने के लिए कृषि संकट को भूमि अधिग्रहण अध्यादेश से जोड़ने की हड़बड़ी दिखाने लगते हैं। यहां सवाल उठता है कि परंपरागत सिंचाई की सीमित सुविधा, छोटी होती जोत, महंगा कर्ज जैसी समस्याएं पहले भी थीं लेकिन बदहाली के बावजूद तब किसान क्यों आत्महत्या नहीं कर रहा था? आखिर किसानों की आत्महत्याएं नब्बे के दशक में ही क्यों शुरू हुर्इं?
देखा जाए तो खेती-किसानी का संकट बहुआयामी कारणों की देन है जिसमें सबसे प्रमुख है उदारीकरण की नीतियां जिनमें कृषि को हाशिये पर धकेल दिया गया। बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि का सीधा संबंध भले ही जलवायु परिवर्तन से हो लेकिन इसके कारण किसानों की जो दुर्दशा हो रही है उसका संबंध हमारी अदूरदर्शी आर्थिक नीतियों से है। महंगे बीज, उर्वरक और कीटनाशक, गिरता भूजल स्तर, बढ़ती मजदूरी के कारण खेती की लागत में बेतहाशा बढ़ोतरी हो चुकी है। ऐसे में बिना कर्ज लिए खेती संभव नहीं रह गई है। हालांकि सरकार ने कृषि ऋणों में भरपूर इजाफा किया है लेकिन कृषि ऋणों की परिभाषा में बदलाव के कारण वास्तविक किसानों को उसका बहुत कम लाभ मिल पाता है।
खेती-किसानी की बदहाली का दूसरा कारण पेट के लिए नहीं बल्कि बाजार की खेती का बढ़ता प्रचलन है। पहले किसान विविध फसलों की बुवाई करता था और पशुपालन जीवन का अभिन्न अंग होता था जिससे किसानों को नुकसान की भरपाई खेती-बाड़ी से ही हो जाती थी। फिर मुसीबत में संयुक्त परिवार का संबल रहता था। लेकिन अब इनमें से कोई नहीं रहा। अब किसान एक-दो फसलों की खेती करता है और गृहस्थी का पूरा दारोमदार उस फसल की बाजार में बिक्री पर रहता है और बाजार का चरित्र अपने आपमें शोषणकारी होता है।
फिर जब से कृषि बाजार का उदारीकरण हुआ है तब से कीमतों पर वैश्विक बाजार का प्रभाव पड़ने लगा है। यहां चीनी की कीमत का उदाहरण प्रासंगिक है। पिछले चार साल से बाजार में चीनी की कीमत जस की तस बनी हुई है जबकि इस दौरान न सिर्फ चीनी उत्पादन की लागत बल्कि गन्ने के खरीद मूल्य में भी बढ़ोतरी हो चुकी है। इसका नतीजा यह है कि चीनी मिलें घाटे में चल रही हैं और गन्ना किसानों को अपने बकाया भुगतान के लिए आंदोलन करना पड़ रहा है। कुछ साल पहले यही स्थिति खाद्य तेल के साथ घटित हुई थी। दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ हुए मुक्त व्यापार समझौते के कारण जब देश में सस्ते पामोलिव तेल का आयात बढ़ा तो तिलहनी फसलों की खेती घाटे का सौदा बन गई। एक बड़ी समस्या कृषि उपजों की सरकारी खरीद के सीमित नेटवर्क की भी है। जिन राज्यों में सरकारी खरीद का नेटवर्क नहीं है वहां किसानों को अपनी उपज औने-पौने दामों पर बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
उपज की कम कीमत के अलावा कृषि पर अत्यधिक जनभार भी किसानों की बदहाली का एक प्रमुख कारण है। दुनिया भर में यह देखा गया है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी घटने के साथ ही उस पर निर्भर लोगों की तादाद घटने लगती है। लेकिन भारत में ऐसा नहीं हुआ। 1950-51 में देश के जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान पचपन फीसद था जो कि आज पंद्रह फीसद से भी कम रह गया है जबकि इस दौरान कृषि पर निर्भर लोगों की तादाद 24 करोड़ से बढ़कर 72 करोड़ हो गई है। यही कारण है कि खेती पर निर्भर लोगों की आमदनी घटती जा रही है। कृषि क्षेत्र में कम आमदनी के कारण ही गांवों से शहरों की ओर पलायन शुरू हो गया है। इसकी पुष्टि 2011 की जनगणना के आंकड़ों से होती है जिसके मुताबिक पिछले एक दशक में किसानों की कुल तादाद में 90 लाख की कमी आई है। अर्थात हर रोज 2460 किसान खेती छोड़ रहे हैं। उदारीकरण के समर्थक भले ही इसे अपनी कामयाबी बताएं लेकिन सच्चाई यह है कि किसान मजदूर बन रहा है। इसे देश के किसी भी महानगर के दड़बेनुमा कमरों में देखा जा सकता है।
रमेश कुमार दुबे, मोहन गार्डन, दिल्ली
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