भीड़, हिंसा और अराजकता की घटनाएं जिस तेजी से बढ़ रही हैं वह किसी भी स्वस्थ समाज के लिए अच्छा संकेत नहीं है। कुछ दिन पहले मणिपुर में भीड़ द्वारा बलात्कार के आरोपी की पीट कर हत्या, उत्तर प्रदेश-बिहार की जेलों से संगठित समूह द्वारा कैदियों की जबरन रिहाई, भतिर्यों या प्रतियोगी परीक्षाओं में छात्रों-युवाओं द्वारा हिंसा और तोड़फोड़ की घटनाएं चिंताजनक हैं। इनसे समाज में एक ओर जहां कानून का भय कम होता है वहीं दूसरी ओर सार्वजनिक संसाधनों का नुकसान होना आम बात है। इलाहाबाद कचहरी में वकील की हत्या और उसके बाद पुलिस-वकीलों का तांडव जिम्मेदार लोगों के अराजकता में भागीदार बनने की नई बानगी है। इसके बाद पीसीएस की परीक्षा का प्रश्नपत्र लीक होने के बाद छात्रों का हिंसक आंदोलन उसका विस्तार ही है।

देश में धर्म, जाति, स्थानीयता के नाम पर नए तरह का संघर्ष शुरू हो रहा है। पश्चिम बंगाल में बांग्लादेशियों की घुसपैठ, दिल्ली सहित अन्य कई राज्यों में चर्चों पर हमले, हरियाणा में दलितों पर हिंसा, झारखंड में बाहरी लोगों के प्रति विरोध, पूर्वोत्तर के लोगों के प्रति शेष भारत का अनमना व्यवहार, उग्र हिंदुत्व के नाम पर प्रतीकों को जबरन स्थापित करने की प्रवृत्ति जैसी न जाने कितनी घटनाएं हैं जिनका होना सामाजिक ताने-बाने के दरकने का आभास है।

उधर पूरा देश गांधी को लेकर नए विमर्श में उलझा है और सरकार जोर-शोर से उनके स्वच्छता वाले सिद्धांत को अमली जामा पहनाने में व्यस्त है। ऐसे में गांधी दर्शन के आधार तत्त्व शांति और अहिंसा की कड़ी का कमजोर होना बड़े खतरे की आहट है। गांधी ने साधनों की शुचिता और लक्ष्यों की पवित्रता की बात की थी। इसी के बल पर सत्याग्रह और सिविल नाफरमानी के उपायों से स्वराज प्राप्ति का लक्ष्य रखा था। इस विचार क्रम में सत्य-अहिंसा बुनियादी तत्त्व थे जिनके बल पर लंबे समय तक स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी जा सकी और उसे प्राप्त भी किया गया। समकालीन राजनीति/ राजनीतिक दलों पर ध्यान दें तो सत्ता प्राप्ति के बाद अपनी विचारधारा से दूर होना ही बहुत सारी समस्याओं की मूल वजह है।

छात्रों-युवाओं के लिए सामाजिक समस्याओं के विषय में जानकारी और समझ पैदा करने के कार्यक्रमों का अभाव बना हुआ है जबकि कौशल विकास और रोजगार जैसे व्यावसायिक पाठ्यक्रमों का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है। परंपरागत विषयों के प्रति छात्रों की अरुचि खुल कर सामने आ रही है जिसका उदाहरण विश्वविद्यालयों में उपरोक्त पाठ्यक्रमों में संख्या का लगातार घटना है। नतीजतन, युवा पीढ़ी में अपने ऐतिहासिक संदर्भों की जानकारी का दायरा सिमट रहा है। हालांकि इंटरनेट जानकारी के स्रोत के रूप में अपनी मजबूत पहचान बना रहा है लेकिन यह ज्ञान गंभीर विमर्श पैदा करने में सफल नहीं हो पा रहा है।

केंद्र में राजग सरकार आने के बाद दंगों का एक नया समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र विकसित हो रहा है। बीते दिनों हाशिमपुरा दंगों में आरोपियों की कमजोर सबूतों के अभाव में रिहाई का फैसला और उस घटना के संदर्भ में सरकार की चुप्पी ने अल्पसंख्यक वर्ग को हैरान किया है। इसी तरह चर्चों पर हमले सहित धर्म के नाम पर पूरे देश में हो रही छिटपुट अप्रिय घटनाएं बेचैन करने वाली हैं। राष्ट्रीय स्तर पर इन घटनाओं के सामाजिक प्रभावों के आकलन के एक साझा तंत्र का न होना खतरे की ओर इशारा करते है। केंद्र-राज्य के पास ऐसे संस्थान का अभाव है जो सामाजिक असुरक्षा को लेकर लगातार अध्ययनशील हो।

सामाजिक-आर्थिक गैरबराबरी को लेकर फैल रही अराजकता के समाधान की दिशा में लोकतांत्रिक सरकारों के विशेष भूमिका निभाने का समय आ गया है। ऐसे में कुछ मौलिक उपायों पर विचार करने की जरूरत दिखाई पड़ रही है। हमारे पास बुद्ध-गांधी का ऐसा वैचारिक मॉडल है, जो समाज के ताने-बाने को टूटने से बचाने के साथ ही मानवीय मूल्यों की स्थापना में बेहद सहायक हो सकता है। लेकिन उत्तर प्रदेश के संदर्भ में बात करें तो विश्वविद्यालयों में ऐसी कि सी पीठ की कमी बनी हुई है। इस रिक्तता को दूर करने में मानविकी के विषयों विशेषकर मानवविज्ञान, अपराधशास्त्र, पत्रकारिता और जनसंचार, मनोविज्ञान, शांति एवं अहिंसा पर ध्यान देना सामाजिक अराजकता के निदान की दिशा में सहायक होगा।
मणेंद्र मिश्रा ‘मशाल’, इलाहाबाद

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