कश्मीर मुद्दे को लेकर जब भी भारत-पाक वार्ता का दौर चलता है या चलने वाला होता है तो यह मान लिया जाता है कि कश्मीर समस्या मुख्यतया कश्मीर में रह रहे बहुसंख्यकों से जुड़ी हुई है और उन्हीं की आकांक्षाओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए। विडंबना देखिए, कश्मीरी पंडित वहां के मूल बाशिंदें हैं लेकिन उनके प्रतिनिधि/ प्रतिनिधियों को न तो कोई वार्ता के लिए बुलाता है और न कोई महत्त्व ही देता है। शायद सरकार जानती है कि यह विस्थापित/ शरणार्थी कौम अपना स्वत्व खो चुकी है, इसे हाशिये पर धकेलने में हर्ज ही क्या है? चुनावों के दौरान पंडितों के विस्थापन, उनकी त्रासदी, उनकी हताशा आदि को तो सरकारें अपने पक्ष में जोर-शोर से भुना लेती हैं, मगर समय आने पर वार्ता-मंच से उन्हें बेदखल कर देती हैं। सच है, क्रूर ग्रहों की स्तुति पहले और सौम्य ग्रहों की बाद में।
एक विडंबना और देखिए। पिछले दिनों जम्मू के कठुआ में आतंकी हमले में एक आतंकी को ढेर करके और अपने चालीस साथियों की जान बचाते हुए शहीद हुए जवान को जींद (हरियाणा) वासियों ने भावभीनी अंतिम विदाई दी। इधर इस जांबाज सिपाही को जींदवासी भावभीनी अंतिम विदाई दे रहे थे और उधर हमारे नेता/ मंत्री और जाने-माने कश्मीरी अलगाववादी पाकिस्तान-दिवस-समारोह में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे। रणबांकुरों वाले हमारे देश की सरकार की नीयत और नीतियां क्या इतनी ढुलमुल हो सकती हैं?
शिबन कृष्ण रैणा, अलवर
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