सीमाएं कभी नहीं उलझतीं, उलझते हैं तो सिर्फ राजनीति के पंडित। यदि हमारे हुक्मरान वोट बैंक की राजनीति के बिना समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करें तो बड़े से बड़ा मामला छोटी-सी मेज पर हल हो सकता है। शायद भारतीय राजनेताओं का यह मतैक्य ही है कि जिससे अब हजारों लोगों को संवैधानिक संरक्षण और मूलभूत अधिकार प्राप्त हो पाएगा। 2011 में देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने एक-दूसरे के क्षेत्र में मौजूद बस्तियों की अदला-बदली का करार किया था मगर तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के विरोध के कारण वह समझौता औंधे मुंह गिर गया।

लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने दलगत फायदे को धता बताते हुए इस विधेयक को लोकसभा में पारित करा लिया जिसका सभी पार्टियों ने समर्थन किया। भाजपा का यह कदम इसलिए भी काबिले तारीफ है कि केंद्र ने असम के भाजपा नेताओं की बातों को नकार दिया जिसमें असम को इस समझौते से अलग रखने की बात की गई थी। इस फैसले से 1947 के बाद से चली आ रही एक बड़ी विसंगति दूर हुई है।

ऊपरी तौर पर देखा जाए तो यह भारत के लिए घाटे का सौदा हो लगता है लेकिन इसकी गहराई में देश हित है क्योंकि ये बस्तियां एक दूसरे मुल्क के अंदर हैं जिससे अपने नागरिकों तक दोनों देशों को पहुंचने में दिक्कत होती है। लिहाजा, इस समझौते से ऐसे लोगों को लाभ होगा जो सीमाओं के विच्छेद का दंश झेल रहे हैं।
धीरेंद्र गर्ग, सुल्तानपुर

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