भावनाएं भड़कना हिंदुस्तान में कोई नई बात नहीं है, किसी भी बात को अनैतिकता का पक्षधर बता कर यहां भावनाएं भड़क जाती हैं। भावनाएं तो जैसे यहां शोलों पर रखी रहतीं हों या कहें तो भावनाओं का ‘क्वथनांक’ यहां बहुत कम जान पड़ता है। लाख सबूत और गवाहों के बावजूद भावनाएं यहां आसाराम बापू और रामपाल के पक्ष में भी भड़क गई थीं। तो स्वाभाविक है, क्रिकेट विश्वकप के सेमीफाइनल में भारत की पराजय पर भावनाएं आहत होना, क्योंकि इस देश में क्रिकेट को भी तो धर्म की तरह माना जाता है।

पिछले कुछ दिनों से सभी न्यूज चैनल धोनी को ‘मैच कैसे खेलना है’ इसकी सैकड़ों सलाह देते दिखे, उनकी भी भावनाओं को तब जरूर ठेस पहुंची होगी, जब पत्रकार वार्ता में धोनी ने कह दिया कि उन्होंने विश्वकप के दौरान कोई न्यूज चैनल नहीं देखा। जिस धोनी को मीडिया पिछले एक महीने से पूज रहा था, एक पराजय के बाद वही मीडिया धोनी से संन्यास को लेकर सवाल करने लगा है। जब प्रबुद्ध वर्ग का यह हाल है, तो आमजन के नजरिए का अंदाजा लगाया जा सकता है। क्योंकि जनता के सोच का वाहक कहीं न कहीं मीडिया ही है। कई लोगों ने अपने टेलीविजन सेट तोड़ दिए, विराट से लेकर अनुष्का सभी पर हार का ठीकरा फूट गया, बेचारी अनुष्का, जिनके पुतले तक फुंक गए।

इस पराजय को लोगों ने जिस भी तरह से लिया हो, लेकिन सच तो यही है कि मैच के हर क्षेत्र में आस्ट्रेलियाई टीम भारत से उम्दा खेली। और फिर हम यह क्यों भूल गए कि इसी भारतीय टीम से हम विश्वकप से पहले, क्वार्टर फाइनल में पहुंचने की उम्मीद तक नहीं कर रहे थे, क्योंकि विश्वकप से पूर्व खेली गई टैस्ट और त्रिकोणीय सीरिज में भारत का लचर प्रदर्शन किसी से छिपा नहीं।

विश्वकप की शुरुआत से ही पूर्व क्रिकेटर हों या इस खेल के अच्छे जानकार, सभी की जीभ यह कहते हुए लड़खड़ा रही थी कि भारतीय टीम भी विश्वकप जीत सकती है। वह तो भला हो महेंद्र सिंह धोनी का, जिन्होंने लाज बचाई और भारतीय टीम को बाइज्जत विश्वकप से रुखसत होने में मदद की। यह धोनी की रणनीति ही थी, जो भारतीय टीम सेमीफाइनल तक आ गई। इस बात को समझने के लिए मजबूत पाचन शक्ति चाहिए, अब इस बात को पराजय से आहत प्रशंसक कैसे समझें, उन्हें तो सिर्फ विजय ही हजम होती है।

इस देश में वैसे भी भावनाओं और धर्म का पुराना संबंध है, अगर किसी महीने दंगा और सांप्रदायिकता की कोई खबर न सुनने में आए तो समझ लीजिए कि ऊपर वाले की हम पर विशेष मेहरबानी है। तो फिर क्रिकेट के चाहने वालों की भावनाएं क्यों न आहत हों, आखिर क्रिकेट को भी तो इस देश में धर्म की तरह ही माना जाता है। कौन भूल सकता है, इस खेल के भगवान (सचिन तेंदुलकर) को भक्तों के खून से लिखे पत्र, सब भावनाओं का खेल है।
बहरहाल, कोई कुछ भी कहे, सेमीफाइनल में जीत क्रिकेट की हुई है।
अभय शर्मा, जामिया, दिल्ली

फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta

ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta