रघु ठाकुर का लेख ‘गांधी-निंदा के नए प्रयोग’ (3 अप्रैल) बहुत अच्छा है। यह जरूरी भी था। काटजू साहब हलके नहीं हैं, थोड़े मूडी हो गए लगते हैं। न्यायाधीश के नाते वे अत्यंत सत्यनिष्ठ और निर्भीक माने जाते थे। प्रयाग में उनकी बड़ी ख्याति है। वे जिस परिवार से हैं, उसका उल्लेख लेख में किया ही गया है। गांधीजी की किसी कार्रवाई से असहमति हो तो भी भाषा तो उचित रहनी चाहिए। इतना आवेग जवानी में तो समझ में आता है लेकिन परिपक्वता में नहीं।
मुझे लेख के अंतिम पैरा के एक गलत कथन को बताना है। आठ मार्च को भोपाल की एक सभा में शंकर शरण ने नेहरू को कम्युनिस्ट कहा था, गांधीजी को नहीं। हालांकि वे गांधीजी की भूमिका के प्रखर आलोचक हैं पर वह गोष्ठी शिक्षा पर थी और नेहरू की शिक्षा नीति पर वे टिप्पणी कर रहे थे। गांधीजी तो कभी शासन में थे नहीं, बात शिक्षा में भारतीय शासन की भूमिका की हो रही थी।
रामेश्वर मिश्र पंकज, भोपाल
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