राजस्थान के किसान गजेंद्र सिंह की आत्महत्या अब तक हुई अनेक आत्महत्याओं के क्रम में ‘एक और’ नहीं है, बल्कि इसमें यह संदेश अंतर्निहित है कि किसानों की आत्महत्याओं का कारण जो कैंसर है वह अब तीसरी और चौथी पायदान पर पहुंच गया है। इस अनोखी घटना का निहितार्थ यह है देश में एक भी राजनेता, कोई एक भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं है जिसका मंसूबा सत्ता और आधिपत्य से परे हो। आज राजनीतिक दलों के बीच कटाजूझ और अनैतिकता की हद तक उतरी हुई प्रतिस्पर्धा की लड़ाई है। उसमें हर एक दल जनता के नाम को केवल एक मुखौटे की तरह पहन कर निपट नंगा मैदान में उतरा है, और जनता से उसका सरोकार बस इतना भर ही है।

जिस पेड़ से लटक कर और जिस मैदान में गजेंद्र सिंह ने दिनदहाड़े, जिन-जिन के साक्ष्य में आत्महत्या की, वे सब चीख-चीख कर वही कह रहे हैं, जो मैंने अभी कहा है। मैदान में चल रही जनसभा सत्ता के मंसूबे का ही एक नया मुखौटा था। मंच पर दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में अरविंद केजरीवाल उस पेड़ से मात्र बीस सेकेंड के पैदल के रास्ते पर थे, वह सब देख-समझ रहे थे, लेकिन कोई भला यह कैसे समझ सकता है कि किसी के लिए अपने प्राण से बड़ी ‘उसकी बात’ हो सकती है। वही ढाक के तीन पात, हर पार्टी इस जोश में है कि उसे प्रतिरोध का नया मुद्दा मिल गया है।

यह स्थिति पहुंची कैसे? इस पर बस एक कारण नजर आता है। सारी राजनीतिक पार्टियां इस करतब में सफल हो गई हैं कि जनता के बीच उनके अपने-अपने भोंपू ऐसे तैयार हो जाएं जो उनके हर एक स्याह सफेद कदम पर औचित्य की मोहर लगाएं और इस तरह राजनीतिक दलों की कुटिलता उनके भोंपू दल के पीछे छिप जाए। और अगर ऐसा न होता तो ऐसा मर्मांतक परिदृश्य सामने नहीं लाता।
अशोक गुप्ता, इंदिरापुरम, गाजियाबाद

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