सोलह मार्च को इसी अखबार में पृष्ठ नौ पर स्वास्थ्य संबंधित प्रकाशित खबर पर संभव है, बहुत कम लोगों की नजर गई हो। इसमें बताया गया है कि सरकारी नियामक राष्ट्रीय दवा मूल्य नियंत्रण प्राधिकरण दवा कंपनियों से तीन हजार छह सौ अस्सी करोड़ रुपए वसूलने की तैयारी कर रहा है। यह महत्त्वपूर्ण खबर है। अक्सर दवाइयों में लूट का मुद्दा उठता रहा है। लेकिन देर से सही, सरकार को भी लगने लगा है कि दवाइयों में यह लूट गरीब देश के साथ अन्याय है! आश्चर्य की बात यह है कि दवाइयों के मूल्य का निर्धारण इतने अमानवीय तरीके से कैसे किया जाता रहा है! बीच में जो नई दवा नीति बनी है और जिसके तहत बाजार आधारित मूल्य निर्धारण नीति को अंगीकार किया गया है, वह भी कंपनियों के हित की ही बात करता है।
जब तक सरकार दवा कंपनियों के जाल को समाप्त नहीं करेगी, ऐसा नहीं लगता कि सही मायने में देश में दवाइयां सस्ती मिल सकेंगी। जिस ‘सिपला’ कंपनी की चर्चा खबर में की गई है, उसके ऊपर सबसे ज्यादा लूट का सिद्ध आरोप है। फिर भी न जाने किस डर से हमारी सरकारें इन कंपनियों के सामने लाचार दिखाई देती हैं। नई सरकार से भी लोगों को जो उम्मीदें बंधी थीं, वह टूटती नजर आ रही है। अभी तक की जो स्थिति है, उससे ऐसा नहीं लगता कि सरकार दवा कंपनियों पर सच में नकेल कसने की स्थिति में है और यूपीए की गलतियों को सुधारने जा रही है। ऐसे में मीडिया से यह उम्मीद है कि वह जनसरोकार से संबंधित दवाओं की खबरों को जगह देकर इस मसले पर सबका ध्यान खींचे।
आशुतोष कुमार सिंह, नई दिल्ली
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