सोलहवीं लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी। पार्टी नेताओं की सबसे ताकतवर कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में सोनिया और राहुल गांधी मौजूद थे। दफ्तर के बाहर से भीतर तक एक बात पर माथापच्ची चल रही थी कि राहुल बाबा को बचाया कैसे जाए। मीडिया के सवालों में उलझे हुए राहुल को किस तरह से राजनीति का सुपरमैन साबित किया जा सके। इस पर पहला दांव सोनिया की तरफ से रहा। शुरुआत पद छोड़ने की उनकी पेशकश से हुई, जिसे मनमोहन सिंह ने रोक दिया।
राहुल के करिश्मे को जिंदा रखने के लिए तरह-तरह के विचार सामने आए। हार की जिम्मेदारी कांग्रेस के कई नेताओं ने लेनी शुरू कर दी। फिलहाल राहुल का न तो करिश्मा नजर आ रहा है और न ही कांग्रेस के लोग संतुष्ट नजर आ रहे हैं। देश के लिहाज से अहम फैसलों के समय राहुल छुट््टी पर चले जाते हैं, जिसके बाद करिश्मा कठघरे में खड़ा नजर आता है। इतना ही नहीं, कांग्रेस के कई नेताओं का मानना है कि अब राहुल को हर गलती के लिए इनाम देना बंद किया जाना चाहिए। और पार्टी को उनके बिना भी चलाने की आदत डालनी चाहिए।
पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने तो यह पूछ लिया कि विकल्प क्या है? 2004 में जब राहुल राजनीति में आए तो उन्हें पार्टी आलाकमान का उत्तराधिकारी माना गया। साथ ही लोगों में इस बात की उम्मीद जगी कि वे पार्टी के ढांचे में सुधार कर उसमें नई जान फूकेंगे।
राहुल के लिए सब कुछ बदलने का समय 2009 में आया, जब कांग्रेस को दोबारा सत्ता मिली और मनमोहन सिंह ने उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल होने का प्रस्ताव रखा। दरअसल, यह वह दौर था, जबकि राहुल प्रशासनिक अनुभव हासिल करने के साथ अपने राजनीतिक अनुभव को तराश सकते थे। लेकिन उन्होंने यह मौका गंवा दिया। राहुल सत्ता की जिम्मेदारी से बचते नजर आते थे, इस तर्क पर कि वे पार्टी के लिए काम करना चाहते हैं।
कई बार उन्होंने अपनी राजनीतिक सक्रियता का मजबूती से परिचय दिया। मसलन, भट््टा पारसौल के दौरे और फिर पदयात्रा के समय या अपनी ही सरकार के एक अध्यादेश की प्रति फाड़ कर। पर अपनी पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार के कामों की जवाबदेही से वे कैसे बचे रह सकते थे? इसलिए बदलाव की उम्मीद वे नहीं जगा सके। अब कांग्रेस की विपक्ष की भूमिका को धारदार बना कर वे पार्टी को पटरी पर ला सकते हैं।
हिमांशु तिवारी ‘आत्मीय’, नोएडा
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