करीब दो साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक आदेश में कहा था कि देश के तमाम सरकारी या निजी स्कूलों में पर्याप्त संख्या में कक्षाएं, शिक्षक, पीने के साफ पानी और शौचालयों का इंतजाम होना चाहिए। लेकिन अलग-अलग राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारों ने इस दिशा में अब तक क्या किया है, यह सब जानते हैं। इससे ज्यादा अफसोसनाक और क्या होगा कि आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी देश के तीन चौथाई से ज्यादा स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव है।
शिक्षा का अधिकार कानून लागू हुए भी कई साल गुजर चुके हैं और सरकारें शिक्षा-व्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव लाने के दावे कर रही हैं। मगर सवाल है कि अगर बहुत सारे बच्चे महज पीने के पानी और शौचालयों के अभाव या उनमें गंदगी के चलते स्कूल नहीं जाते या बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है?
क्या यह सरकारों के लिए शर्मिंदगी का विषय नहीं होना चाहिए कि स्कूलों में बहुत सारी लड़कियों को शौचालय के अभाव में जोखिम उठा कर खुले मैदानों में जाना पड़ता है या फिर वे घर लौट जाती हैं? कई अध्ययनों में यह तथ्य उजागर हो चुका है कि लड़कियों के बीच में पढ़ाई छोड़ने की बड़ी वजहों में एक यह भी है कि उनके लिए स्कूलों में अलग शौचालयों का इंतजाम नहीं होता। विचित्र है कि जो काम सरकारों की जिम्मेदारी है और उसके लिए अपनी ओर से पहल करनी चाहिए, उसके लिए वे अदालतों की फटकार का इंतजार करती हैं!
रमेश सांगवान, रोहतक
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