भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा का अरुण शौरी के संदर्भ में कहना है कि ‘बहुत से लोग अच्छे समय में मित्र होते हैं। जब चीजें ठीक होती हैं तो ऐसे लोग पार्टी में घुसने की कोशिश करते हैं और इसमें विफल होने पर शत्रुतापूर्ण रवैया अपनाते हैं!’ इसके अलावा केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल और निर्मला सीतारमण ने फरमाया कि पार्टी में उचित स्थान नहीं मिलने की वजह से शौरी की यह बौखलाहट है!

संबित पात्रा, निर्मलाजी और पीयूष गोयल ऐसे पात्र हैं जिनका अपना कोई आधार नहीं है और इन्हें कभी भी बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है। अर्थात ये पार्टी की तिकड़ी की मर्जी पर टिके हुए हैं।

इन्हें वही बजाना है जो इनसे बजाने के लिए कहा जाएगा! अरुण शौरी की टिप्पणी से और कुछ हुआ या नहीं, पर इस विवाद ने पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र का ढोल पीटने वाले अमित शाह, उनके गुरु और उनके महागुरु अरुण जेटली की मानसिकता को जरूर उजागर कर दिया है! ‘नई भाजपा’ ने यह दिखा दिया है कि मोदीजी की सरकार के खिलाफ बोलने वाले को किस हद जलालत झेलनी पड़ सकती है और पार्टी में वरिष्ठ और बुजुर्गों का कितना मान-सम्मान है!

अरुण शौरी एक स्थापित व्यक्तित्व हैं और आपातकाल के समय उनकी एक उल्लेखनीय भूमिका रही है। जिस जमाने में अच्छे-अच्छे योद्धा बिलों में घुस गए थे उस समय उनके परिवार ने शासन से सीधी टक्कर ली थी। दूसरी बात, इनके बारे में कुछ कहने से पहले यह सोचना चाहिए था कि अरुण शौरी को वाजपेयीजी ने उनकी योग्यता और साहस के बल पर मंत्रिमंडल में लिया था न कि किसी सिफारिश या चाटुकारिता की वजह से।

अरुण शौरी ही नहीं बल्कि वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी ने भी मोदीजी और उनके गुरु अरुण जेटली की कार्यशैली पर टिप्पणी की है। अरुण जेटली लोकसभा का चुनाव उस समय हारे जिस वक्त सारे देश में आड़े-तिरछे सब जीत गए थे। और फिर चुनाव हारने के बाद उन्हें ऐसे मंत्रालयों की जिम्मेदारी दी गई जिनसे सरकार के सारे छिपे एजेंडों को पूरा किया जा सके। लोकसभा हो राज्यसभा, अरुण जेटली एक वकील की तरह अपना पक्ष रखते हैं। मगर जिंदगी केवल वकालत से नहीं चलती है।

भाजपा के छुटभैयों ने जो किया सो किया, सबसे ज्यादा आश्चर्य तो मीडिया की भूमिका को लेकर है। आम आदमी पार्टी में जब योगेंद्र यादव और अरविंद केजरीवाल के बीच मामला चला था तो मीडिया के एक हिस्से ने अरविंद को बदनाम करने के लिए दिन-रात एक कर दिए थे। कुछ चैनलों ने तो एक चुने हुए मुख्यमंत्री के खिलाफ अभियान में सारी मर्यादा ताक पर रख दी थी। योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण नीति और नीयत की बात उठा रहे थे तो शौरी भी असलियत और दिखावे को परिभाषित कर रहे थे। लेकिन मीडिया ने एक बार भी यह जरूरत नहीं समझी कि अरुण शौरी की बात को सही अर्थों में रखने का प्रयास करता। मीडिया को पुरस्कार देने या मलाई चटाने से असलियत नहीं छिपेगी।
मीडिया के झांसे में एक भूल तो भाजपा के पन्ना प्रमुखजी ने दिल्ली के चुनाव के समय की थी और जनता की नब्ज को न समझ कर मुंह की खाई थी। दूसरी भूल पश्चिम बंगाल के नगर निगम चुनावों में की। यदि ऐसे ही तिकड़ी के हवाई और तमाशाई खेल चलते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब ये तीनों साबरमती के किनारे झूला झूलेंगे और जनता तमाशा देखेगी!

अरुण शौरी जैसे व्यक्ति कभी-कभी बोलते हैं और जब बोलते हैं तो उनकी बातों में अर्थ होता है। उनकी बातें मन से नहीं दिल से और देश के लिए होती हैं!
यतेंद्र चौधरी, वसंत कुंज, नई दिल्ली

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