जब कभी हम ऐसा कोई मैच हारते हैं जिस पर हमने भारी उम्मीदें लगा रखी थी तो हम दुखी होने के साथ-साथ अपने खिलाड़ियों को कोसने लगते हैं। दरअसल, इसमें दोष हम सभी का है। हमारे खिलाड़ी जब जीत कर आते हैं तो उनके हाव-भाव से ऐसा लगता है जैसे उन्होंने देश को बुलंदियों पर पहुंचा दिया है। खेद की बात यह है कि लोग भी उन्हें ‘भगवान’ तक कहने से नहीं चूकते! यह बात ‘पीके’ फिल्म पर शोर-शराबा करने वाले किसी भी आदमी को बुरी नहीं लगती। सवाल यह है कि ऐसा कौन-सा खेल है या कोई दूसरा क्षेत्र है जिसमें हम लोग निरंतर चोटी पर बने रहते हैं? कोई भी तो नहीं। हम विज्ञान, साहित्य, वाणिज्य, कला, खेल आदि सभी क्षेत्रों में दोयम दर्जे की सफलता हासिल कर अपनी पीठ थपथपाते रहते हैं। क्रिकेट तो दुनिया में सिर्फ दस-बारह देश खेलते हैं और यह सही अर्थों में ‘स्किल और चांस’ दोनों पर आश्रित है। इस खेल की खूबी यही है कि इसमें कुछ भी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता। यही वह मजा है जिसका लुत्फ उठाने के लिए लोग इसे देखते हैं।
अब एक सवाल उन लोगों से जो पहले से अपना सारा काम-धंधा छोड़ कर टीवी, रेडियो या इंटरनेट खोल कर बैठ गए थे। कितने चुस्त-दुरुस्त हैं आप अपनी जिम्मेदारी निभाने में? कई लोग तो अभी कई दिन खिलाड़ियों को गाली देने में बिताएंगे। भैय्या, खेल को अफीम माफिक नशा न बनाओ; सिर्फ अपने घर-परिवार या उस आम आदमी पर ध्यान दो, जो कई दिनों से आपके कार्यालय का चक्कर काट रहा है या उस काम पर जिसके लिए आपको वेतन मिलता है। विश्वकप में यह कोई पहली हार नहीं है, जो आप पचा नहीं पा रहे हैं! आखिर इस धरती पर और लोग भी तो रहते हैं, जो दूसरे कई खेलों और अन्य क्षेत्रों में हमसे कहीं बहुत आगे हैं।
सुभाष चंद्र लखेड़ा, द्वारका, नई दिल्ली
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