आंदोलन की शुरुआत आदर्श से होती है, इसलिए उसमें त्याग, लगन और समर्पण वाले लोग जुटते हैं और उसमें खुशी महसूस करते हैं, लेकिन राजनीतिक दल बनते ही उसे प्रतिद्वंद्वी और प्रतियोगी दलों से चुनावी चुनौती मिलती है और वे उन सत्तालोलुप गिरोहों की चुनौती का सामना करने को अपना मुख्य लक्ष्य बना लेते हैं।
इसके लिए वे चुनाव जीतने और सत्ता पाने के लिए समझौते करने, चुनावी चंदा एकत्रित करने और विरोधियों पर अनैतिक हमले करने से भी नहीं चूकते। आंदोलनों की लोकप्रियता से मिले समर्थन से जब चुनाव जीतने की संभावनाएं बलवती हो जाती हैं तो तरह-तरह के निहित स्वार्थ उनके आसपास घिरने लगते हैं और संसाधनों की प्रचुरता द्वारा संचालन अपने हाथ में ले लेते हैं।
‘आप’ का मुख्य संकट यही है कि चुनावी पार्टी में बदल चुके इस समूह को उसी आंदोलन के मानदंडों से मापने की कोशिश की जा रही है। योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण द्वारा उठाए गए सवाल गलत नहीं हैं, लेकिन उन्हें किस तरह से उठाया गया है यह चौंकाता है, क्योंकि वे चुनावी पार्टी की रणनीति का भंडाफोड़ कर अपने नेता को बेईमान बताने की कोशिश करते प्रतीत होते हैं। बहुत संभव है कि चुनावी चंदा एकत्रित करने के लिए आंदोलन की पुरानी नैतिकता से कुछ विचलन किया गया हो, पर जब तक यह साबित न हो रहा हो कि कथित विचलन व्यक्तिगत हित के लिए किया गया है तब तक ये सारे आरोप सार्वजनिक नहीं होने चाहिए थे।
योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण जैसे लोग अगर आंदोलन को चुनावी पार्टी में बदलने के प्रति सहमत थे तो उनसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे यह नहीं समझते होंगे कि अपनी पार्टी की जीत की संभावनाओं को धूमिल करके परोक्ष में उन राजनीतिक शक्तियों को मदद पहुंचाई जा रही है जिनके खिलाफ आंदोलन प्रारंभ किया गया था, और उसी लक्ष्य को पाने के लिए अब चुनाव लड़ा जा रहा है।
जबसे अरविंद का गाली-गलौज वाली भाषा का स्टिंग सार्वजनिक हुआ है तबसे चारों और उनके आंदोलन वाले समर्थक निराश नजर आते हैं। किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि वे उम्र में वरिष्ठ और नेतृत्वकारी साथी रहे लोगों के प्रति अपनी भाषा में उस स्तर तक पहुंच जाएंगे कि अपने पद और कद को भूल जाएंगे।
आलोचना के इस ज्वार में बातचीत में से यह भुला दिया गया कि आखिर ऐसी क्या बात हो गई कि आमतौर पर मृदुभाषी रहे अरविंद के मन में इतनी कड़वाहट घुल गई कि उन्हें ऐसी भाषा पर उतरना पड़ा। क्या आप के नेताओं का आपसी रिश्ता यही था कि उसके कार्यकर्ता आपस में की गई बातचीत को भी रिकार्ड कर लेते थे! यह तो अमर सिंह जैसी हरकत हुई जिन्होंने अपने वकील प्रशांत भूषण की प्रोफेशनल बात को भी रिकार्ड करके रखा था और उसका इस्तेमाल राजनीति में कर दिया था। अगर दूसरा गुट इतना ही नैतिकतावादी था तो आनंद कुमार का यह कहना कि बात निकलेगी तो बेडरूम तक जाएगी किस बात का संकेत है? अगर उन्हें कुछ और भी जानकारी है तो उसे भी बताना चाहिए।
प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव की सही बातें भी विषय से हट कर हैं, वे अभी बड़े समर्थन वाले जननेता नहीं हैं और केजरीवाल गुट को नुकसान तो पहुंचा सकते हैं, या कहें कि पहुंचा चुके हैं। लेकिन आंदोलन के आदर्शों को लाभ पहुंचाने की स्थिति में नहीं हैं। वे चाहते तो राजनीतिक दल बनाते समय अलग हो सकते थे या अभी अपने को अलग करके बाद में ऐसे अवसर पर अपनी बात कह सकते थे जिससे आंदोलन को लाभ मिलता। अब उन लोगों को लाभ मिलेगा जिनके आचरण उनसे भी बुरे हैं जिनके खिलाफ उन्होंने यह सब उठापटक की है।
काश! उन्होंने व्यापक जन समुदाय की उम्मीदों की रक्षा में बेहतर विकल्प देने तक धैर्य रखा होता। काश! केजरीवाल ने भावावेश में अपनी भाषा पर नियंत्रण रखा होता।
वीरेंद्र जैन, भोपाल
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