साक्षी मलिक और पीवी सिंधु ने जब रियो ओलंपिक में पदक जीता तो देश में खुशी की लहर दौड़ गई। लग रहा था जैसे हमने ओलंपिक ही जीत लिया हो। राजनीतिक पार्टियां खेलों के प्रति कितनी संजीदा हैं इसका प्रमाणपत्र पाने के लिए लगभग सभी की सरकारों ने खिलाड़ियों को करोड़ों रुपए भेंट में दिए। मगर अफसोस, जब विदेशी मीडिया में यह खबर चर्चा का विषय बनती है कि ‘सवा सौ करोड़ आबादी वाला देश भारत दो पदक के साथ 68वें स्थान पर रहा’ तो खुशी फीकी पड़ जाती है। दुनिया का सबसे युवा देश खेल के सबसे बड़े महाकुंभ में पदकों के लिए हर बार तरसता रहता है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि भारत ओलंपिक खेलों में महज औपचारिकता पूरी करने के लिए भाग लेता है। वैश्विक स्तर पर हम खेलों में कहां हैं इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अमेरिकी तैराक माइकल फ्लेप्स ने अपने करियर में जितने ओलंपिक पदक जीते हैं भारत ने उतने ही पदक अब तक अपने 116 सालों के ओलंपिक इतिहास में हासिल किए हैं। जमैका, फिनलैंड, कोलंबिया, केन्या आदि देश जो भारत के कई राज्यों से भी छोटे हैं, हमें पदक तालिका में ऊपरी पायदान से मुंह चिढ़ाते नजर आते हैं।

भारत खेलों में इतना पीछे क्यों है, यह कोई रहस्य की बात नहीं है। दरअसल, ‘पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे होगे खराब’ जैसी कहावत खेलों के प्रति हमारी मानसिकता का परिचायक है। खेलों को हमेशा हमारे यहां दोयम दर्जे का समझा गया है। इसके अलावा सबसे बड़ा सवाल खेल संस्कृति का है, जिसे कभी सुव्यवस्थित ढंग से विकसित करने का प्रयास किया ही नहीं गया। यों तो कहने को हमारे यहां खेल संस्कृति वैदिक काल से है, मगर कड़वा सच है कि खेलों को हमने कभी अपनी संस्कृति में शामिल किया ही नहीं। आज खेलों का जो भी माहौल देखने को मिलता है वह खिलाड़ियों के व्यक्तिगत प्रयासों का नतीजा है। सबसे ज्यादा राजनीति ने खेलों का बेड़ा गर्क किया है। ऐसे-ऐसे लोग जिन्हें खेलों के क ख ग की भी समझ नहीं, वे इस देश में खेलों को चला रहे हैं। जिम्मेदारी-जवाबदेही जैसी कोई चीज खेल प्रशासन में है ही नहीं। भारत में खेलों का प्रशासनिक ढांचा पूरी तरह से सड़ चुका है और इसके पुनर्निर्माण की जरूरत है।

एक अन्य समस्या यह है कि हमारे यहां खेल के नाम पर जो भी मूलभूत सुविधाएं हैं वे शहरी क्षेत्रों तक सीमित हैं। इसलिए जरूरी है कि खेल वातावरण पैदा करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों की ओर बढ़ा जाए क्योंकि हमारी लगभग सत्तर प्रतिशत आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। बुनियादी ढांचे, जैसे स्टेडियमों का निर्माण, खेल उपकरणों की व्यवस्था आदि तमाम चीजों के लिए निजीकरण एक बेहतर विकल्प हो सकता है। हमारे देश में सारी श्रद्धा एक विशेष खेल के प्रति देखने को मिलती है। खूबसूरत अपवादों को अगर छोड़ दिया जाए तो खेल की दुनिया की कोई खबर, जब तक वह सनसनी न पैदा करे, तब तक सुर्खी नहीं बनती। तमाम विश्व ताकतों ने खेलों की अहमियत को समझा है और अपनी प्राथमिकताओं में जगह भी दी है। ऐसे में अगर भारत आज सुपर पॉवर बनने का सपना देख रहा है तो उसे भी खेलों के महत्त्व को समझना पड़ेगा और अपने यहां खेल संस्कृति विकसित करनी पड़ेगी।
’वैभव प्रताप सिंह, जामिया, नई दिल्ली</p>