बीते दिनों भारत की लाइफ लाइन कही जाने वाली भारतीय रेल भारत का चौराहा कहलाने वाले कानपुर के पास पटरी से उतरी और करीब डेढ़ सौ लोगों की जीवन-लीला समाप्त हो गई। लगा, जैसे हमारी सदियों की काहिली ने रेलवे को ट्विटर युग की खुशफहमी से अचानक जमीन पर पटक दिया हो। रेलवे हमारी समाजवादी व्यवस्था की नाक रही है जिसे कटने देने के लिए कोई भी सरकार तैयार नहीं रही। उदारीकरण के बाद तमाम क्षेत्रों में निवेश और निजीकरण हुआ मगर रेलवे को सरकार ने बचा कर रखा। अमेरिका के अलग रक्षा बजट की तर्ज पर हमारे यहां अलग से रेल बजट पास होता रहा। किराया बढ़ाने का जोखिम न लेना, परियोजनाओं में सियासी भेदभाव और सरकार द्वारा किसी सरकारी कंपनी की तरह इससे लाभांश लेने का मोह न छोड़ने के कारण रेलवे की हालत दिनोंदिन खास्ता होती चली गई। लिहाजा, अंग्रेजों के जमाने के ढांचे पर चलती रेलवे कब बुढ़ा कर जर्जर हो गई इसका खयाल ही नहीं आया। ज्यादातर रेल मंत्रियों ने सुरक्षा-संरक्षा की जगह इससे सियासी हित साधने का काम दे दिया।
नई सरकार से उम्मीद थी कि रेलवे के हित के लिए वह अलोकप्रिय फैसले लेगी, कई जगह उसने लिए भी मगर इतनी बड़ी दुर्घटना उन्हें नाकाफी करार दे चुकी है। पहले से गंभीर उपेक्षा का शिकार रही रेलवे पूरी तरह ठीक नहीं हो सकी और यह दर्दनाक हादसा हो गया। यह दुर्घटना अंतिम होगी वर्तमान सियासी प्रतिबद्धता को देखते हुए इसे सुनिश्चित करना आसान नहीं है। वहीं दूसरी ओर आम भारतीय का भय बढ़ा रहा है जिसके पास रेल में चढ़ने के सिवाए चलने का कोई चारा नहीं है।
’अंकित दूबे, जनेवि, नई दिल्ली