कागज पर शहर
सरकार को अब बता देना चाहिए कि स्मार्ट सिटी की जिस कार्ययोजना की घोषणा जोर-शोर से हुई थी, वह कागज पर ही अच्छी दिखती है या हकीकत में भी धरातल पर उतरती है। जिस शहर को स्मार्ट सिटी का दर्जा नहीं मिला है, वहां के लोग सोचते होंगे कि काश हमारा भी शहर स्मार्ट होता। लेकिन भागलपुर जैसे शहर की स्थिति में कोई बुनियादी परिवर्तन दिखता नहीं है, जिसे स्मार्ट सिटी का दर्जा दिया गया है। शहर की समस्याओं मे विस्तार बदस्तूर जारी है। स्मार्ट शब्द को व्यावहारिक धरातल पर उतारने में सरकार और प्रशासन विफल है।

अतिक्रमण और गंदगी पर मुकम्मल रोक लगती नहीं दिखती है। बल्कि कहें कि यह समस्या दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। ‘नो इंट्री’ नियम का पालन नहीं हो पा रहा है। भीड़ से लोग परेशान रहते हैं। ऐसे में भविष्य भी बहुत सुंदर नहीं दिखता है। यह केंद्र सरकार की नीति है, इसलिए भी कम से कम सख्त निगरानी की व्यवस्था होनी चाहिए। कार्य की प्रगति में बाधक बन रहे किसी भी तत्त्व से निपटना चाहिए और इस योजना को अमल में लाने की व्यवस्था करनी चाहिए। किसी भी क्षेत्र में दिखे कि शहर स्मार्ट बन रहा है, अन्यथा गांवों को गोद लेने जैसा हश्र हो जाएगा स्मार्ट सिटी परियोजना का भी।
’मिथिलेश कुमार, भागलपुर</p>

अभिव्यक्ति पर प्रहार
फिल्म पद्मावती पर रोक लगाने की मांग का औचित्य समझना मुश्किल है, लेकिन यह अभिव्यक्ति के अधिकार पर करारा प्रहार है। जो समाज अब तक तमाम तरह की अश्लील फिल्में बर्दाश्त करता रहा हो, लेकिन अब अचानक संस्कृति और खासतौर पर जातीय गौरव की आड़ में फिल्मकारों को निशाना बनाने लगा हो तो यह निस्संदेह गलत है। किसी जाति विशेष के दवाब में आकर सेंसर बोर्ड द्वारा फिल्म की रिलीज की तारीख को टालना उसकी स्वायत्तता पर सवाल खड़ा कर देता है। किसी एक जाति की मांग को आधार मान कर अगर फिल्म रिलीज नहीं होने दी जाती है तो भविष्य में भारत की तमाम जातियां इस तरह की मांग पर अड़ने लगेंगी।

कुछ राजनेताओं द्वारा सिनेमा की आजादी पर इस तरह अंकुश लगाने के प्रयास करना भारतीय फिल्म जगत के विस्तार को समेटने जैसा है। सिनेमा समाज का आइना है। उसे इस तरह निशाना बनाना भविष्य में फिल्म जगत के दायरे के चौपट होने की संभावना दर्शाता है। यह देश लोकतंत्र का पुजारी माना जाता है। देश के संवेदनशील और जागरूक नागरिकों को इसके विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद करनी चाहिए। हमें अपने वर्तमान की चिंता करने की जरूरत है, न कि युद्धों के उन्माद में उलझे हुए अतीत की।
’रक्षित परमार, उदयपुर