दुर्योग की बात है कि जब प्रधानमंत्री सूरजकुंड में ‘शून्य दुर्घटना’ पर भाषण दे रहे थे उसी वक्त पटना-इंदौर एक्सप्रेस कानपुर के पास पटरी से उतरने से लगभग डेढ़ सौ लोगों की दुखद मौत हो गई। इस घटना से एक बार फिर रेलवे की कार्यशैली पर गंभीर प्रश्न खड़े हो गए हैं। पहले भी सैकड़ों लोग रेल दुर्घटनाओं में मारे गए हैं पर रेलवे और केंद्र सरकार का रवैया सिर्फ रेलवे की नाकामियों को छुपाने का रहा है। हर दुर्घटना के बाद जांच समिति बनती है, सिफारिशें आती हैं पर नतीजा हर बार शून्य ही रहता है। रेलवे का सारा ध्यान बस निजीकरण को बढ़ावा देकर मुनाफा कमाने पर केंद्रित है।

अधिकतर ट्रेनें आज भी पुराने इंटीग्रल कोच फैक्टरी (आईसीएफ) के कोच वाली हैं और ये कोच पटरी से उतरने के बाद जानमाल का भीषण नुकसान करते हैं। सिफारिशों के बावजूद लिंक हॉफमेन बुश (एलएचबी) कोच मात्र पांच हजार हैं जबकि आईसएफ कोच की संख्या पचास हजार के लगभग हैं। एलएचबी बोगियों के भारत में बनने के बावजूद रेलवे द्वारा इन्हें बदलने की सुस्त रफ्तार चिंता का विषय है। दुखद यह भी है कि सिर्फ ज्यादा किराये वाली ट्रेनों में कोच बदले गए हैं मगर आम आदमी आज भी जान-जोखिम में डाल कर सफर करने को मजबूर है। पटरियों की हालत भी तेज रफ्तार ट्रेनों को सहने के काबिल नहीं है और गैंगमैन इनकी निगरानी में लापरवाही बरतते हैं। इन मूलभूत कमियों को दूर करने में गंभीरता दिखाने के बजाय रेलवे रंग-रोगन और सोशल मीडिया पर ज्यादा ध्यान दे रहा है।

भारतीय रेल दुनिया का सबसे बड़ा रेल नेटवर्क है। लगभग एक लाख पंद्रह हजार किलोमीटर वाले इस नेटवर्क में रोजाना ढाई करोड़ यात्री सफर करते हैं लेकिन यात्रियों की सुरक्षा के नाम पर केवल आश्वासन मिलते आए हैं। आये दिन ट्रेनों में लूटपाट, छेड़खानी की शिकायतों के बावजूद कोई ठोस कदम रेलवे की ओर से नहीं उठाए जा रहे हैं। एक तरफ तो रेल किराये हवाई जहाज के किराये से बराबरी कर रहे हैं मगर दूसरी तरफ आम आदमी की जान बार-बार हो रहे हादसों में जा रही है। आम आदमी को सुरक्षा की गारंटी देना भी सरकार का काम है सिर्फ टिकट बेचकर मुनाफा कमाना उसका एकमात्र लक्ष्य नहीं होना चाहिए।

हर बार जांच कमेटी बना कर अपने दायित्व की इतिश्री समझ ली जाती है। टीवी चैनलों पर भी रेल हादसे की खबरें दो-तीन दिन चलती हैं, अखबारों में भी छपती हैं। लोग कुछ दिन इस विषय पर चर्चा करते हैं पर उसके बाद सब कुछ पहले की तरह राम भरोसे चलता रहता है। बस पीड़ितों के परिवार ही जीवन भर अपने मृत संबंधियों को याद कर आंसू बहाते रह जाते हैं।
’अश्वनी राघव, उत्तम नगर, नई दिल्ली</p>