पंडित नेहरू की मृत्यु के बाद उनके समाजवादी सिद्धांतों को सहेजने के लिए इंदिरा गांधी ने एक नायाब पहल करते हुए एक संस्थान की नींव डाली। नाम पड़ा- जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय। सस्ती शिक्षा, लोकतांत्रिक सोच और रौशन खयाली के साथ-साथ भारत के अलग-अलग हिस्सों या यों कहें कि दूरदराज से चुने गए विविधतापूर्ण छात्र समुदायों के गुलदस्ते के साथ यह संस्थान जल्द ही अपने निरालेपन के लिए जाना जाने लगा। लोकतांत्रिक-वैविध्यपूर्ण और समाजवादी भारत का एक छोटा-सा बौद्धिक मॉडल यहां दिखने लगा। अपनी उत्कृष्ट अकादमिक गतिविधियों के साथ-साथ यह परिसर वामपंथ का गढ़ बनता गया। और जैसा कि पूरे संसार में हुआ है, वामपंथ खुद के सिवाय किसी के नजरिए को सही नहीं ठहराता, और एक समय के बाद लोकतांत्रिक नहीं रह जाता; यहां भी वाम ने बाकी के सभी विचारों के प्रति भारी नकार का भाव दिखाया।
बात यहीं खत्म नहीं होती। वाम अपनी राजनीति को किसानों-मजदूरों के मुद्दों से ब्राह्मणवाद और राष्ट्रवाद के विरोध तक ले आया। इसी की आड़ में कैंपस का माहौल कब भारी जातिवादी, बीमार तरह का सेकुलरवादी और राष्ट्रद्रोही तक हो गया, इस पर विचार करने की जहमत कभी नहीं उठाई गई। आजादी कब उच्छशृंखलता में बदल गई, पता नहीं चला। विचारों की जड़ता से उठी सड़ांध की गंध नौ फरवरी की घटना के जरिए जब देश के आमजन तक पहुंची तब यह संस्थान अच्छा-खासा बदनाम हो गया। लोगों ने तमाम बातें कहीं। इन पर विचार करने की बजाय वाम ने इसे संस्थान पर हमला करार दिया और ‘सेव जेएनयू’ के नारे के साथ सबकी सहानुभूति जुटाने की कवायद शुरू कर दी। हालिया चुनाव में इसी मुद्दे पर हालांकि वाम की जीत हो गई है मगर इस जीत से वाम की भूमिका पर उठे सवाल दब नहीं जाते।
’अंकित दूबे, जेएनयू, नई दिल्ली</p>