जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) एक संस्थान के रूप में अब भी उत्कृष्ट है। पर पिछले कुछ समय से सियासत में किसी भी कीमत पर अपनी जगह बनाने को बेताब लोगों ने इसकी मिट्टी पलीद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। लिहाजा, स्वस्थ बहस-मुबाहिसे की जगह अब जोर-जबर्दस्ती और अतिवाद ने ले ली है। हर कीमत पर अपनी बात और अपने कहे को ही सच मनवाने की जिद हावी है।

एक अवसर को छोड़ दें तो हर बार यहां वाम (लेफ्ट) की यूनियन बनती रही है। इसलिए कैंपस के बदले मिजाज की जिम्मेदारी उन्हें लेनी चाहिए। वाम की अगुआई में यहां उस जनेऊ के खिलाफ लड़ने का आह्वान होता है जो कपड़ों के भीतर पहना जाता है और जिससे आम जन-जीवन के सुचारु रूप से चलने में कोई बाधा नहीं पहुंचती। जब औरतें चांद पर जा रही हैं, नोबेल-आॅस्कर जीत रही हैं तब यहां एक तबका सिर से पांव तक काले-स्याह लिबास में इस हद तक ढंका है जिसकी एक आकृति से अधिक कोई पहचान नहीं है।

जब ऐसी बुराइयों को जलाना चाहिए तब यहां के छात्र नेता ने जनता द्वारा निर्वाचित प्रधानमंत्री को रावण बनाकर जलाया। जब यहां सामाजिक न्याय की बात होती है तब सारा जहर समाज के सवर्ण कहे जाने वाले तबके के खिलाफ उगल कर लोग रह जाते हैं। क्या कथित सवर्णों में लोग गरीब नहीं हैं? क्या उन्हें आरक्षण का हक नहीं होना चाहिए? सच के साथ खड़े रहने की बात करने वाली वाम राजनीति बुरी तरह से बीमार हो गई है। इसका असर संस्थान की साख पर पड़ रहा है। इससे पहले कि राजनीतिक क्षुद्रता इस जगह की उत्कृष्टता को निगल जाए, हमें चेत जाना होगा।
’अंकित दूबे, जनेवि, नई दिल्ली</p>