प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी अपनी जिम्मेदारी के अनुरूप आचरण करते नहीं दिखते। प्रसिद्धि की भूख में वे तरह-तरह के नारे देते हैं। स्वच्छ भारत का नारा दिया लेकिन जुबान और कर्म से वे ही नहीं, उनके सिपहसालार भी लगातार गंदगी फैलाते रहे हैं। राष्ट्रीय स्वाभिमान की रक्षा, वैज्ञानिक प्रगति और विकास मानो केवल उनके दम पर हो रहे हैं, ऐसा मोदी प्रदर्शित करते हैं। जैसे उनसे पहले भारत की कोई साख ही नहीं थी! सार्वजनिक उपक्रमों के जरिए बने देश के विशाल आधारभूत ढांचे को वे यों ही बट्टे खाते में डालना चाहते हैं। विदेश जाकर फरमाते हैं, ‘भारत भीख नहीं मांगेगा’। क्या उनसे पहले भारत भीख मांग रहा था? क्या मंगलयान और बीसियों उपग्रह छोड़ने में मोदी का कोई योगदान है? वे रक्षा सौदे करें तो देशभक्ति और दूसरे करें तो दलाली! अब तो इन्होंने दलाली ही वैध कर दी। फ्रांस से 36 रॉफेल विमानों का सौदा किया। गदगद हुआ फ्रांस। यह गत है मेक इन इंडिया की!

मोदी कांग्रेस को कोसने के लिए ही सत्ता में आए थे या काम करने के लिए? कांग्रेस अपनी करनी का फल भुगत रही है। आप उससे अलहदा क्या कर रहे हैं? जिस बेरोजगारी, महंगाई, कालाधन, भय, असुरक्षा और नारी के अपमान से मुक्ति की बातें कही गई थीं, वे अब मुद्दे ही नहीं हैं। केवल विदेशों में घूम-घूम कर ‘विदेशी पूंजी लाओ, निवेश बढ़ाओ’ के ढोल-ढमाके बजा-बजा कर जनता का ध्यान असली मुद्दों से हटाने से कैसे विकास हो जाएगा?

नरेंद्र मोदी आज जो करते दिख रहे हैं, वह सब तो मनमोहनसिंह भी कर रहे थे। अंतर केवल इतना है कि उनके पास बैंड-बाजे और उसमें नाचने वाले इंवेट मैनेजमेंटी धमाल की कमी थी। लेकिन उस पूंजी निवेश और निजीकरण के प्रसार और सार्वजनिक संपदा की बंदरबांट का दुष्परिणाम तो देश भुगत ही रहा है और नरेंद्र मोदी बैंड-बाजों और नाचने वालों के धमाल के शोर में उस बुरे असर को गौण कर रहे हैं। जब नीति वही, काज वही तो असर अलग कैसे हो सकता है?

जिस विकास दर में वृद्धि के लिए मोदी देश की सार्वभौमिकता और आत्मनिर्भरता को निरंतर पलाता लगाने पर उतारू हैं, वह विकास दर मनमोहन सिंह के राज में भी दस प्रतिशत तक पहुंच गई थी, लेकिन रोजगार नहीं बढ़े। रोजगारपरक शिक्षा और कौशल विकास के नाम पर उन्होंने भी आइआइटी की संख्या और सीटें बढ़ा कर दुगनी से ज्यादा कर दीं। निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों को बड़ी उदारतापूर्वक इजाजत दी गई थी। आज देश के हर हिस्से और राज्य में ऐसे कॉलेजों की बाढ़-सी आई हुई है। अकेले राजस्थान में चालीस से ऊपर इंजीनियरिंग कॉलेज खुले जो मामूली से अंतराल में अब विश्वविद्यालयों में बदल गए हैं। सरकारी और निजी आइटीआइ की तो गिनती ही नहीं रही है, गली-मोहल्ले में खुले पड़े हैं।

लेकिन इस कथित कौशल विकास का निहितार्थ क्या निकला? सिवाय गिने-चुने और ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर रोजगार मिलने के, इनका योगदान सामान्य स्नातक विद्यालयों से भी गया-बीता है। आइआइटी जैसे या कुछ ख्यातनाम संस्थानों से निकले इंजीनियरिंग स्नातकों को मिले चुनिंदा बेहतर अवसरों को छोड़ दें तो शेष कौशल विकासी बेकार बड़ी फौज के पास कागजी प्रमाणपत्र तो जरूर थे, पर न उसे व्यावहारिक ज्ञान मिला और न रोजगार। अब तो बड़ी संख्या में खाली रहती सीटों के चलते प्रवेश परीक्षा लेने की औपचारिकता भी खत्म हो गई है।

इंजीनियरिंग शिक्षा के दौरान दिया जाने वाला प्रशिक्षण केवल दिखावटी या कागजी रहा है क्योंकि जहां प्रशिक्षण के लिए भेजा जाता है, वे कुछ सिखाते ही नहीं, कुछ छुट्टी मनवाते हैं, कुछ बेगारी करवा लेते हैं। जिस क्षेत्र के लिए इंजीनियरिंग छात्र तैयार होकर निकलता है, उस क्षेत्र में उसे रोजगार ही नहीं मिलता। यदि कहीं किसी की मेहरबानी से मिलता भी है तो एक दिहाड़ी मजदूर के बराबर या उससे थोड़ा-सा बढ़ कर।

बहुतेरे बिना किसी सुविधा-लाभ के केवल पांच हजार रुपए मासिक में काम कर रहे हैं। अपनी शिक्षा, कौशल, प्रशिक्षण आदि से इतर गुजारे के लिए दूसरी नौकरी के लिए भी वे मजबूर हैं। जो भी निवेश आता है, वह उच्च तकनीक के सहारे न्यूनतर श्रम आधारित ढांचे पर आता है। नतीजतन, रोजगार के सारे नारे छलावा भर रह जाते हैं। पढ़ाई की भारी-भरकम फीस और रोजगार की चक्करघिन्नी में कौशल विकास की परिभाषा और नारे समझ से परे हैं।
रामचंद्र शर्मा, तरुछाया नगर, जयपुर

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