तरुण विजय ने ‘ऊंची जाति नीची जाति’ (दक्षिणावर्त, 10 मई) में जातिगत रूढ़ियों को उजागर करने का साहसिक कार्य किया। दुर्भाग्यवश ऊंची विकास दर के मोह में उलझी सरकारें सामाजिक कुरीतियों से कतराती रहती हैं तो राजनीतिक दल जाति की खाई को चौड़ा करने में जुटे रहते हैं ताकि वोट बैंक की राजनीति पर आंच न आए। इसी का नतीजा है कि आधुनिकता और विकास के तमाम दावों और अमेरिका को दिमाग निर्यात करने की क्षमता वाले भारतीय समाज में दलित उत्पीड़न थमने का नाम नहीं ले रहा है। यही मानसिकता सरकारी कार्यालयों, राजनीति, मीडिया और साफ-सफाई को छोड़कर जीवन की सभी गतिविधियों में दलितों को हाशिये पर धकेल देती है।
सबसे बड़ी विडंबना यह है कि अपने को तथाकथित ऊंचा समझने वाला वर्ग कभी इस बात पर चिंतन-मनन नहीं करता कि क्या छोटी जाति के बिना जीवन संभव है। काश! यह चिंतन किया होता तो आज अफगानिस्तान से लेकर इंडोनेशिया तक भगवा ध्वज लहरा रहा होता।
सामाजिक कुरीतियों के विवेचन-विश्लेषण के क्रम में तरुण विजय धनकुबेरों से एक बेतुका सवाल करते हैं कि उन्होंने दलितों के लिए कितने संस्थान खोले हैं? आखिर धनकुबेर दलितों के लिए संस्थान क्यों खोलें जब उनका लक्ष्य ही मुनाफा कमाना है। दलित तो क्या, उनके एजेंडे में सवर्ण गरीब भी नहीं हैं। उनकी निगाहें तो भारत के उभरते मध्यवर्ग पर टिकी हैं जो इतना बड़ा है कि उसमें यूरोप के कई मुल्कों की पूरी की पूरी आबादी समा जाए। जब राजनीति और सरकार इन सवालों से नहीं टकराती तो मुनाफे को भगवान मानने वाला निजी क्षेत्र क्यों ‘बर्र के छत्ते’ में हाथ डाले! इन सबके बावजूद कई सामाजिक संगठन नि:स्वार्थ भाव से दलितोद्धार के पुण्य कार्य में पूरी शिद्दत से जुटे हैं।
लेखक अंत में आरक्षण को सार्थकता प्रदान करते हुए सवाल करते हैं कि आरक्षण न होता तो क्या होता? लेकिन वे आरक्षण के चलते दलित समाज में पैदा हुई विसंगतियों की ओर झांकने की जहमत नहीं उठाते। इसमें कोई दो राय नहीं कि आरक्षण व्यवस्था ने दलितों को राजनीति, प्रशासन में महत्त्वपूर्ण हिस्सेदारी दी है। लेकिन कड़वी हकीकत यह है कि इसी आरक्षण ने दलितों में एक ‘नव ब्राह्मण’ वर्ग पैदा किया है जो अपने सजातीय भाइयों को पिछड़ा बनाए रखने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ता ताकि उनकी मलाई का कोई नया हिस्सेदार न पैदा हो जाए। इसे एक छोटे-से उदाहरण से समझा जा सकता है।
केंद्र सरकार की नौकरियों में अनुसूचित जनजाति की अधिकांश सीटें राजस्थान के मीणा और उत्तर-पूर्व के आदिवासी हड़पे हुए हैं। जाति के भीतर पैदा हुए इस नए वर्गभेद पर जब तक सवाल नहीं उठाएं जाएंगे तब तक जातिगत आरक्षण समाज में नए विभाजन पैदा करता रहेगा।
रमेश कुमार दुबे, मोहन गार्डन, दिल्ली
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