बांग्लादेश के साथ आवासीय भूभाग की अदला-बदली को सहमति देने वाले ‘भूमि सीमा अधिनियम’ के संसद में पारित होने के साथ ही ‘संघ’ के राष्ट्रवाद की वास्तविकता की एक परत और उधड़ गई। यह अधिनियम मूलत: पूर्व सरकार का था। पूर्व सरकार ने इसे पारित कराने की भरसक कोशिश की पर अपने ‘संघ’ (संघ और भाजपा को अलग-अलग मानने का भ्रम अब भली प्रकार दूर हो गया है) ने पुरजोर विरोध किया और इसे पारित नहीं होने दिया।
अब इसे ‘संघ’ की मोदी सरकार ने पारित कराया है और बिना किसी बदलाव के पारित कराया है। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने सदन में स्वीकारोक्ति की कि ‘यह बिल यूपीए सरकार का है। हमने इसमें कॉमा-फुलस्टॉप तक का बदलाव नहीं किया है क्योंकि यह बना ही इतना अच्छा है।’ इस अधिनियम का पारित होना सरकार के लिए इतना महत्त्वपूर्ण था कि पारित होने के बाद प्रधानमंत्री मोदी अपनी जगह से उठ कर सोनिया गांधी को धन्यवाद देने गए।
सवाल है कि यह अधिनियम किसके लिए महत्त्वपूर्ण था- देश के लिए या सरकार के लिए? यदि देश के लिए महत्त्वपूर्ण था तो संघ ने पहली सरकार द्वारा प्रस्तुत इस विधेयक का विरोध क्यों किया था? जो तब राष्ट्रहित में नहीं था वही अब (बिना कॉमा-फुलस्टॉप बदले) राष्ट्रहित में क्यों और कैसे हो गया? एक ही कारण नजर आता है- संघ के लिए स्वहित ही राष्ट्रहित होता है। उसके लिए ‘राष्ट्र’ और ‘राष्ट्रवाद’ केवल भावोन्माद पैदाकर सत्ता हथियाने के धारदार, प्रभावी और परिणामदायी औजार हैं। सत्तावाद ही संघ के राष्ट्रवाद का एकमेव और अंतिम अर्थ है।
इससे पहले, बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा 26 प्रतिशत से बढ़ाकर 49 प्रतिशत करना और जीएसटी बिल पारित कराने की अकुलाहट, इन दो तथ्यों ने भी संघ के वास्तविक राष्ट्रवाद को उजागर किया है। बीमा पूंजीवाले अधिनियम ने तो संघ के ‘भारतीय संस्कृति की रक्षा’ के नारे की हकीकत भी उजागर कर दी जिसमें बेटे ने बाप को देश की सबसे बड़ी पंचायत में गलत घोषित कर दिया। लोग भूले नहीं हैं कि भाजपा के थिंक टैंक कहे जाने वाले, पूर्व केंद्रीय वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा ने तत्संबंधित समिति के अध्यक्ष की हैसियत से, विदेशी पूंजी निवेश को 26 प्रतिशत से बढ़ाकर 49 प्रतिशत करने को राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध कहा था। लेकिन उन्हीं के बेटे ने यह विधेयक पारित कराने में महती भूमिका निभाई।
पूर्व सरकार ने जीएसटी अधिनियम पारित कराने के लिए कितने और कौन-कौन से पापड़ नहीं बेले! लेकिन ‘संघ’ ने उसकी प्रत्येक कोशिश को निरस्त कर दिया और सरकार को नाकों चने चबवा दिए। उसी अधिनियम को देश के आर्थिक विकास के लिए अपरिहार्य घोषित कर, पारित कराने के लिए संघ की मोदी सरकार एड़ियां रगड़ रही है। मोदी-मुद्रा वाले अहं भाव को जी रहे अरुण जेटली इस अधिनियम को पारित कराने के लिए प्रतिपक्ष से याचना, चिरौरियां कर रहे हैं, गिड़गिड़ा रहे हैं।
संघ की मोदी सरकार को अभी तो एक वर्ष भी पूरा नहीं हुआ है। अभी देश को काफी-कुछ देखना है। फिलहाल तो यही साबित हो रहा है कि जिस तरह विज्ञापनों की दुनिया में स्त्री को सर्वाधिक कारगर ‘बिकाऊ वस्तु की तरह देखा जाता है उसी तरह राजनीति की दुनिया में राष्ट्रवाद सर्वाधिक कारगर और बिकाऊ औजार है और संघ इसका श्रेष्ठ उपयोगकर्ता।
रामचंद्र आर्य, रतलाम
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta