जनसत्ता 15 अक्तूबर, 2014: खबर है कि प्रधानमंत्री के सपने को साकार करने के लिए खाद्य प्रसंस्करण विभाग सक्रिय हो गया है। वह सपना यह है कि फलों के रस को शीतल पेयों में मिलाकर बेचा जाए। क्यों! बाजार में डिब्बाबंद या खुले बिकने वाले फलों के रस अपने आपमें पर्याप्त नहीं हैं क्या? शीतल पेय क्या इतने अमृतोपम हैं कि उन्हें स्वीकार्य बनाने के लिए उनमें फलों का रस मिलाया जाए? दोनों अलग-अलग रूप में बिक रहे हैं तो क्या हानि है?
दरअसल, इसके पीछे कारण यह है कि कुछ गैर सरकारी संस्थाओं के प्रयास से लोग शीतल पेयों की असलियत समझाने लगे हैं और इनके विरुद्ध अभियान भी चला रहे हैं जिससे शीतल पेयों की बिक्री में गिरावट आने लगी। नतीजतन, दोनों बड़ी अमेरिकी कंपनियां (पेप्सी और कोका कोला) सीधे पानी के व्यापार में कूद पड़ीं और अंधाधुंध मुनाफा कूटने लगीं।
लेकिन इसमें भी उन्हें भारतीय कंपनियों, जैसे बिसलरी और रेल नीर से कड़ी टक्कर मिलने लगी। अब पानी पर तो कोई पेटेंट भी नहीं हो सकता कि वे इन कंपनियों के विरुद्ध कोई वैधानिक कार्रवाई कर सकें। इसलिए यह नया रूप धरना पड़ रहा है। और जब इस काम में हमारे नवोन्मेषी प्रधानमंत्री का ‘विजन’ है तो भाइयों बहनों! इसे कौन रोकेगा?
आनंद मालवीय, इलाहाबाद
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