जनसत्ता 12 नवंबर, 2014: पिछले दिनों समाचार एजेंसी एएनआइ के संवाददाता ने जब रॉबर्ट वाड्रा के भूमि सौदों में कथित अनियमितताओं के बारे में कुछ पूछना चाहा तो वे संयम खो बैठे और पत्रकार के माइक को धक्का देकर उसे सनकी कह दिया। दरअसल, रॉबर्ट वाड्रा दिल्ली के पांचसितारा होटल अशोका में ‘जिम’ के एक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए पहुंचे थे। वहां मौजूद एएनआइ के संवाददाता ने जब वाड्रा से जिम को लेकर सवाल पूछे तो वे सहजता से जवाब देते रहे। लेकिन जैसे ही संवाददाता ने उनकी कु-चर्चित ‘लैंड डील’ को लेकर सवाल किया तो रॉबर्ट वाड्रा की दुखती रग फड़क उठी। उनका गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया और पत्रकार से बदसलूकी की। उनके इस अवांछित आचरण से प्रजातंत्र में चौथे पाये के पक्षधरों में निराशा और रोष का छा जाना स्वाभाविक था। प्राय: समूचे मीडिया जगत ने वाड्रा के इस व्यवहार की आलोचना की। वाड्रा अगर इस सवाल के जवाब को टालना ही चाहते थे तो छाती ठोंकने/ चौड़ाने के बदले ‘नो कमेंट्स’ कह कर भी स्थिति को संभाल सकते थे। आशा की जानी चाहिए कि भविष्य में इस धृष्टता से सबक लेकर कोई भी नेता, बड़ा ओहदेदार या रसूखवाला मीडिया से ऐसे पेश नहीं आएगा। जागरूक और निष्पक्ष मीडिया का तो सम्मान होना चाहिए,अपमान नहीं।
एक बात और। समय मौजूं है जब वाड्रा की जेड प्लस सुरक्षा हटाई जाए। समझ में नहीं आता कि यह अति खर्चीली सुरक्षा उन्हें क्यों दी गई है? ऐसे वे कौन से ‘हीरे-जवाहर’ हैं जिनकी सुरक्षा देशहित में और बहुत ही लाजमी है। सुना है, देश में और भी ऐसे कई महानुभाव हैं जिन्हें यह सुविधा मिल रही है। ऐसे ‘हीरे-जवाहरों’ की सूची बननी चाहिए और महज अति संवेदनशील और अत्यावश्यक परिस्थितियों में यह खर्चीली सुविधा सुपात्रों को दी जानी चाहिए। देश के अनावश्यक खर्चे ऐसे ही कम होंगे और इससे होने वाली बचत-राशि को जनकल्याण की योजनाओं में लगाया जा सकता है।
मन भारी हो जाता है जब देखता हूं कि बड़े-बड़े ओहदेदारों या नेताओं के दामाद, पुत्र, करीबी रिश्तेदार आदि आनंद से/ बगैर मेहनत के वह सब कुछ पा जाते हैं जिसके लिए साधनहीनों को जिंदगी भर भटकना पड़ता है। मेरे पढ़ाए कई विद्यार्थी तीस-पैंतीस वर्ष गुजरने के बाद भी जीवन-यापन के लिए संघर्षरत हैं या फिर जैसे-तैसे जिंदगी धकिया रहे हैं। इसके विपरीत रसूखदारों के साहबजादे रातों रात करोड़पति बन गए और संसार की सारी खुशियां बटोर लीं। समानता का पक्ष लेने वाली और वर्गहीन समाज की कल्पना करने वाली व्यवस्था के लिए यह बात चिंता का कारण होनी चाहिए।
शिबन कृष्ण रैणा, अलवर
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