वर्षाजी ने अपनी टिप्पणी ‘प्रतिवाद के पायदान’ (जनसत्ता, 17 नवंबर) में संतुलित तरीके से बात कहने की कोशिश की है। इस विषय में कोई सर्वमान्य संहिता नहीं बन सकती और न ही प्यार करने या दर्शाने के तरीकों को या सावधानियां रखने की सलाह की कोई भी सूची बन सकती है, संस्कृति की चौकीदारी करके उसके शील की रक्षा की कोशिश करने वाले नासमझ होते हैं या कुंठाओं और वर्जनाओं से ग्रसित अतृप्त आत्माएं। ऐसे लोगों के लिए ‘मन भावे, मूड़ डुलावे’ वाली बात करीब नजर आती है।
जितने स्वघोषित संस्कृति रक्षक हैं उनके बारे में कुछ बातें बगैर किसी शोध या परिश्रम के कही जा सकती हैं। पहली यह कि ‘ढाई आखर प्रेम का’ को समझने की कोशिश करना भी इनके बूते की बात नहीं है, दूसरी जिस संस्कृति की ये रक्षा करना चाहते हैं उसके साहित्य, व्याकरण, इतिहास, भूगोल, समाज शास्त्र, मनोविज्ञान, दर्शन आदि से इनका कोई लेना-देना है यह आरोप इन पर नहीं लगाया जा सकता, इस मामले में ये सोलह आने ‘पवित्र आत्माएं’ हैं।
हरिशंकर परसाईजी ने लिखा है कि उनके मोहल्ले के एक सज्जन नैतिकता की पहरेदारी करते थे, वे इस बात को लेकर बहुत चिंतित रहते थे कि मोहल्ले की लड़कियों का चरित्र पतन हो रहा है। परसाईजी असली बात जो लिखते हैं कि उन सज्जन की तकलीफ यह नहीं है कि लड़कियों का पतन क्यों हो रहा है, उनकी तकलीफ यह है कि जब चरित्र पतन होना ही है तो हमसे क्यों नहीं?
एक बात मेरे बेटे ने अपनी मां को समझाई जो संयोग से उसकी मां को समझ आ गई। उसे प्रबंधन की पढ़ाई करने के लिए भोपाल से पूना भेजा था, छुट्टियों में घर आया करता था। एक बार उसे महसूस हुआ कि उसकी मां कतिपय शंका के साथ कुछ टोह लेना चाहती हैं तो उसने कहा कि देखो मां मुझ पर भरोसा करने के अलावा आपके पास और कोई विकल्प नहीं है। उसकी मां को पूछे गए, नहीं पूछे गए और भविष्य में पूछे जा सकने वाले सभी प्रश्नों के उत्तर मिल गए।
श्याम बोहरे, बावड़िया कलां, भोपाल
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