जनसत्ता 8 अक्तूबर, 2014: फिल्म ‘हैदर’ पर, इधर बहुत कुछ पढ़ने को मिला। दो अक्तूबर को रिलीज हुई इस फिल्म का कथानक कश्मीर की 1995 के बाद की पृष्ठभूमि पर आधारित है यानी जब कश्मीर में आतंकवाद का कहर अपने चरम पर था। कहा यह जा रहा है कि फिल्म के कथानक का तानाबाना शेक्सपियर के नाटक ‘हैमलेट’ से प्रेरित होकर बुना गया है। कश्मीर में पृथकतावादी ताकतों ने कैसे घाटी के जन-जीवन को नरक बना दिया और इस नारकीय जीवन में मौकापरस्त तत्त्व कैसे अपने हिस्से की रोटियां सेंकते रहे, घर के अंदर और बाहर अनाचार/अत्याचार देख कैसे पढ़े-लिखे युवावर्ग ने प्रतिशोध लेने के लिए बंदूक हाथ में उठा ली आदि कुछ ऐसे प्रसंग हैं जिन्हें ‘हैदर’ में पूरी कलात्मकता के साथ फिल्माया गया है। कश्मीर का रूप-रंग, संगीत-संस्कृति, पहाड़-बर्फ, कहीं-कहीं पर कश्मीरी भाषा के शब्द और प्रसिद्ध लोकगीतों की पंक्तियां भी: यह सब कुछ फिल्म में उंडेले गए हैं ताकि ‘हैदर’ आतंक की परतों को उकेरने के अलावा एक कलापूर्ण फिल्म भी दिखे।

पूरी फिल्म को देखने के बाद लगता है कि हैदर के विपक्ष में जो बातें लिखी या कही जा रही हैं वे यों ही नहीं कही जा रहीं। सबसे पहली बात जो इस फिल्म के विपक्ष में जाती है वह यह कि सेना की भूमिका को फिल्म में नकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया गया है। फिल्म देखने पर ऐसा लगता है कि ‘आजादी’ चाहने वाले तथाकथित दीवाने मानो किसी ‘बड़े लक्ष्य’ के लिए लड़ रहे हों और सेना उनकी इस मुहिम को बेदर्दी से कुचल रही हो। इससे अनायास ही पृथकतावादी ताकतें फोकस में आ जाती हैं, उनका महिमा-मंडन हो जाता है और सेना खलनायक के रूप में दिखती है। सुना है सोलह अक्तूबर को रोम फिल्म-फेस्टिवल में यह फिल्म दिखाई जाएगी जहां पर स्वाभाविक है इस फिल्म के माध्यम से पूरे विश्व में भारतीय सेना एक अत्याचारी सेना के रूप में नजर आएगी। एक सूचना के अनुसार ‘लंदन गार्डियन’ में भी यह आशंका जताई गई है कि ‘हैदर’ के प्रदर्शन द्वारा दुनिया को निश्चित रूप से यह संदेश जाएगा कि भारतीय सेना अत्याचार द्वारा आतंक को कुचल रही है और मानवाधिकारों की खुल कर अवहेलना कर रही है। सेना ने हाल ही में कश्मीरियों के जान-माल की अपनी जान पर खेल कर कैसे रक्षा की? इस सारी बात पर पानी फिर जाएगा!

एक बात और। फिल्म में एक गाना ‘बिस्मिल’ कश्मीर के प्रसिद्ध और अति प्राचीन मार्तंड (सूर्य) मंदिर में फिल्माया गया है। इस मंदिर का निर्माण कर्कोट वंश से संबंधित राजा ललितादित्य मुक्तापीड द्वारा कराया गया था। यह मंदिर सातवीं-आठवीं शताब्दी का है। इस मंदिर के साथ एक समुदाय-विशेष के हजारों-लाखों श्रद्धालुओं की भावनाएं जुड़ी हुई हैं। क्या उक्त गाने को गवाने/ फिल्माने के लिए निर्देशक को मार्तंड (सूर्य) मंदिर के अलावा दिलफरेब ‘लोकेशनों’ से भरी पड़ी वादी-ए-कश्मीर में और कोई दूसरी जगह नहीं मिली? वैसे भी एएसआइ (पुरातत्त्व विभाग, भारत सरकार) का यह दायित्व बनता है कि ऐसे प्राचीन और महिमाशाली धरोहरों की वह रक्षा करे, न कि गाने-बजाने/ ठुमके लगवाने या उछलने-कूदने के लिए फिल्मकारों को सौंप दे। गीत फिल्माने के लिए किन परिस्थितियों या कारणों से एएसआइ ने अनुमति दी? यह पता लगाने की जरूरत है।

‘हैदर’ कश्मीर की हकीकत पर आधारित है, ऐसा कहना या समझना गलत होगा। अगर होती तो हमें इस फिल्म में कश्मीरी पंडितों के विस्थापन की भी कहीं न कहीं, थोड़ी-सी ही सही, झलक जरूर नजर आती। एक कश्मीरी पंडित नेता ने सवाल उठाया है ‘मेरा एक ही सवाल है कि आखिर इसमें कश्मीरी पंडितों के विस्थापन और उन पर हुए जुल्म की बात क्यों नहीं दिखाई गई है? यह फिल्म तो हैदर के जरिए कश्मीर के एक वर्ग-विशेष को मजलूम दिखाते हुए आतंकवाद को सही ठहराती है।’

कश्मीर में आतंकवाद के मूल कारणों की दार्शनिक अंदाज में व्याख्या करते हुए कुलभूषण खरबंदा एक स्थान पर कहते सुनाई देते हैं: ‘नेहरूजी ने श्रीनगर के लाल चौक से कश्मीरियों से कहा था कि प्लेबिसाइट (रायशुमारी) से ही कश्मीर समस्या का हल निकाला जाएगा…’ अब इस डायलॉग को इस समय और इतने वर्षों बाद फिल्म में टांगने का क्या औचित्य है? इस बीच झेलम में खूब पानी बहा। कश्मीर की नई पीढ़ी जो पुरानी बातों को भूल कर नए सपनों को साकार करने के रास्ते खोजने में लगी हुई है, उसे आप जानबूझ कर आगाह कर रहे हैं कि कश्मीर समस्या अभी जस की तस है। यों कश्मीर जैसे संवेदनशील मुद्दे में इस समय नेहरूजी को बीच में लाने का क्या औचित्य बनता है? अगर हम ही इस मुद्दे को विवादास्पद समझेंगे तो औरों को कैसे बताएंगे कि कश्मीर हमारा है। जख्मों पर से पपड़ी ऐसे ही बेमौके के संवाद उतारते हैं!
शिबन कृष्ण रैणा, अलवर

 

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