जनसत्ता 13 नवंबर, 2014: जनसत्ता (8 नवंबर) के संपादकीय पृष्ठ पर दो टिप्पणियां किसी भी सामान्य बुद्धि-विवेक वाले व्यक्ति की आंखें खोल देने के लिए काफी हैं। पहली ‘सफाई का नाटक’ है। इसमें जिस तरह सफाई के नाटक का पर्दाफाश किया गया है वह कटु सत्य तो है ही, हास्यास्पद भी है। पहले कचरा फैला कर फिर उसे झाडू से साफ करना और इस ‘सफाई’ की तस्वीरें पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाने का उद्देश्य निश्चय ही यह दर्शाना है कि ऐसा करने वाले, नरेंद्र मोदी द्वारा शुरू किए गए अभियान (?) से सहमत हैं। सरकारी अधिकारी तो मजबूरीवश यह ‘नाटक’ करते हैं। मेरे शहर में कुछ अधिकारियों ने भी कुछ इसी तरह की सफाई एक नए ढंग से की। उन्होंने कागजों को फाड़ कर उनके टुकड़े कचरे की तरह फैलाए, फिर उसे साफ किया। समझ नहीं आता कि मोदी का यह ‘अभियान’ कितना सार्थक होगा? नेता, अफसर और अन्य खुशामदी लोग झाडू लगाते हुए अपनी चाहे जितनी तस्वीरें छपवा लें अथवा मोदी स्वयं फावड़ा चलाते हुए टीवी पर यह बताते रहें कि उन्होंने दस या बीस बार फावड़ा चलाया है और इस ‘मेहनत’ के कारण आए माथे के पसीने को पौंछते रहें पर वास्तविकता यह है कि नगरों और गांवों में कचरे के ढेर यथावत लगे हुए हैं। गली-मोहल्लों की नालियों में पहले की तरह कचरा सड़ रहा है।

दूसरी टिप्पणी ‘दुनिया मेरे आगे’ में विष्णु नागर की है। देश के सबसे बड़े तिरंगे को लगाए जाने और विश्व का सबसे बड़ा स्मारक, जिस पर तीन हजार करोड़ रुपए खर्च होंगे, को बनाए जाने के संबंध में विष्णु नागर ने जो तीखी टिप्पणी की है वह स्वागत योग्य है। उनका यह कथन कि, ‘…आखिर हम क्यों कहीं भी भारत का सबसे बड़ा राष्ट्रीय झंडा फहराना चाहते हैं? सामान्य आकार के झंडे से क्या दिक्कत है? क्या बड़ा झंडा वड़ोदरावासियों के राष्ट्रप्रेम को देश में सबसे ऊंचा कर देगा…….क्या राष्ट्रप्रेम की मापजोख अब झंडे की लंबाई-चैड़ाई से हुआ करेगी?’ महत्त्वपूर्ण है। पांच सौ चालीस फुट के तिरंगे को लगाने से देश का क्या भला होगा? ऐसे अर्थहीन प्रदर्शन का क्या औचित्य है? इन प्रश्नों का उत्तर क्या गुजरात के झंडाबरदार देंगे?

इसी तरह विशाल स्मारक बनाए जाने से क्या होगा? क्या बड़ी प्रतिमा लगाने से सरदार पटेल का महत्त्व और बढ़ जाएगा? उनकी मूर्ति न लगाने पर भी इस इतिहास-पुरुष का ऊंचा कद यथावत बना हुआ है। नागरजी ने बहुत सही लिखा कि, ‘…अमेरिका के स्टेच्यू आॅफ लिबर्टी से हम प्रतियोगिता क्यों करना चाहते हैं? क्या हम यह साबित करना चाहते हैं कि हम अमेरिका से आगे बढ़ गए हैं। उनके सबसे ऊंचे स्मारक से भी ऊंचा स्मारक बना कर? जनता की गाढ़ी कमाई की जितनी राशि इस स्मारक के निर्माण में खर्च की जा रही है उतनी राशि यदि निर्धन झुग्गी वासियों के आवास, प्राथमिक शिक्षा, ग्रामीण चिकित्सा या अन्य समाज-हित के कार्यों में लगाई जाए तो वह अधिक सार्थक होता। यह भी समझ से परे है कि सरदार पटेल की विशाल प्रतिमा ‘एकता का स्मारक’ कैसे हो गई? क्या स्मारक बनाने के प्रतीक के जरिए एकता स्थापित की जा सकती है? उनका यह कथन रेखांकित किए जाने लायक है कि ‘यह स्मारक तो बन जाएगा मगर असली एकता का क्या होगा? क्या वह इसी तरह के प्रतीकों तक ही सीमित रहेगी…।’

विडंबना यह है कि अधिकतर लोग इस तरह के नाटकों-प्रदर्शनों को नया ‘प्रयोग’ और राष्ट्रहित की कार्रवाई मानते हैं। वे इस संबंध में अपने बुद्धि-विवेक का उपयोग नहीं करते। ऐसे अवांछित-अनावश्यक कार्यों के बारे में तार्किक ढंग से विचार किया जाना चाहिए।

 

संतोष खरे, राजेंद्र नगर, सतना

 

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