जनसत्ता 15 नवंबर, 2014: विनोद कुमार का लेख ‘कैसे रुकेगा भ्रष्टाचार’ (13 नवंबर) पढ़ा। उनका यह कहना कि अकेले कानून बनाने से भ्रष्टाचार नहीं रुक सकता, शत-प्रतिशत सही है। इसके लिए विकेंंद्रीयकरण की आवश्यकता है। जब तक देश और प्रदेश की राजधानियों में बैठ कर जनता के लिए योजनाएं बनती रहेंगी तब तक सब बेमानी है। अब दिल्ली या लखनऊ में बैठने वाले अधिकारी को क्या पता कि अमुक गांव में क्या समस्या है। दूसरी बात यह कि केंद्र से जो भी पैसा मिलता है वह ‘टाइड फंड’ के रूप में होता है। ‘टाइड फंड’ का मतलब है कि अमुक राशि अमुक मद पर ही खर्च की जा सकती है। उदाहरण के लिए, ओड़िशा के एक गांव में करीब साठ परिवार हैजे से पीड़ित हुए। नजदीक से नजदीक जो अस्पताल था वह गांव से करीब पंद्रह किलोमीटर दूर था। वहां पहुंचने के लिए कोई साधन नहीं था। गांव की पंचायत के पास करीब छह लाख रुपए से ज्यादा रकम थी। पर वह सारा पैसा टाइड फंड था। उस पैसे से पंचायत एक वाहन भी नहीं ले सकती थी। नतीजा यह हुआ कि अस्पताल न जाने की स्थिति में आधे से ज्यादा लोगों की मौत हो गई। तो वह पैसा किस काम का? जब उस पैसे से किसी की जान भी नहीं बचा सके तो ऐसे पैसे का क्या फायदा?
एक और उदाहरण लें। एक बार दिल्ली में बैठे अफसर को सपना आया कि यदि हमारे देश के हर गांव के लोग अपने-अपने गांव में पानी का संचय करें तो भारत की पानी की समस्या हल हो सकती है। दिल्ली से एक फरमान जारी हुआ और योजना का नाम ‘हमारा गांव हमारा पानी’ रखा गया। प्रदेश स्तर पर जिलाधीश महोदय ने सभी गांवों के सरपंचों को बुलाया और बताया कि सब अपने गांव में पानी का संचय करेंगे और ऐसे ढांचे को बनाने के लिए सरकार की ओर से एक लाख रुपए दिए जाएंगे! एक सरपंच ने अपने गांव के लोगों को इकट्ठा किया और संबंधित योजना के बारे में बताया कि हमें इस तरह पानी का संचय करना है। लोगों ने जब यह बात सुनी तो वे हंसने लगे। लोग इसलिए हंस रहे थे कि उस गांव में तो हर साल भयंकर बाढ़ आती है और लोग पानी का संचय न करके पानी की निकासी चाहते हैं! इस तरह कितनी योजनाएं हैं जो केवल कागज पर बनती हैं।
कानूनन ऐसी सभी योजनाएं ग्राम पंचायत की मर्जी से बननी चाहिए। अगल-बगल के गांवों की समस्याएं अलग-अलग हो सकती हैं। गांव में सीधा पैसा जाने लगेगा तो बीच के लोगों के खाने का रास्ता बंद होगा और जो भी पैसा दिया जाए वह सामूहिक अनुदान के रूप में दिया जाए जिसे गांववासी अपनी जरूरत के हिसाब से खर्च कर सकें! यही स्वराज है!
यतेंद्र चौधरी, नई दिल्ली
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