जनसत्ता 7 अक्तूबर, 2014: प्रमोद मीणा के लेख ‘प्रतीकों की राजनीति’ (4 अक्तूबर) में गांधी की अवधारणा और मोदी के दिखावे का अच्छा विश्लेषण है। विदेशी पूंजी के लिए रेड कारपेट बिछाने से लेकर ढोल बजाते मोदी द्वारा गांधी जयंती पर ‘स्वच्छ भारत’ अभियान की शुरुआत करना क्या गांधी के प्रति वाकई सच्चे प्रेम का इजहार है? या जिस संकीर्ण दायरे वाली हिंदुत्ववादी विचारधारा की वे अब तक राजनीति करते आए हैं, उससे किनारा है या दिखावा? इन सवालों का जवाब न मोदी दे रहे हैं और न उनकी सरकार। ‘हिंदुस्तान का मुसलिम देश के लिए जिएगा और देश के लिए मरेगा’ जैसे वक्तव्य भर से हमारे कॉरपोरेटी मीडिया ने उनके अंदर के मुसलिम प्रेम को देख लिया और जम कर प्रचार भी किया।

हिंदु हो या मुसलमान, सिक्ख हो या ईसाई या कोई भी देशवासी, सभी देश के लिए जिएंगे और मरेंगे। उनकी देशभक्ति पर कौन सवाल उठा सकता है। फिर प्रधानमंत्री मोदी का यह कहना एक असामान्य खबर क्यों बन गई? ऐसा इसलिए कि मोदी की विचारधारा में इसकी जगह नहीं थी। मोदी के इस वक्तव्य का कोई अर्थ नहीं रह जाता है, जब तक कि वे अपने संघी साथियों के वैमनस्य फैलाने वाले बयानों पर कोई रोक नहीं लगाते हैं और सांप्रदायिकता फैलाने वालों को दंडित नहीं करते हैं। उत्तर प्रदेश में हम देख रहे हैं कि प्रधानमंत्री और गृहमंत्री वहीं से चुन कर आए हैं और वैमनस्य से भरे बोलों के ‘महावीरों’ को रोकने के बदले उनकी पार्टी उन्हें सम्मानित करती आई है। गांधी से अगर मोदीजी को वाकई प्रेम है तो ऐसे लोगों के खिलाफ गांधी के अनशन को वे क्यों भूले हुए हैं?

विदेशी पूंजी और निवेश के लिए कुछ भी करने को तैयार मोदी की नीतियों में गांधी के ग्राम और नगर स्वराज की अवधारणा कहां है? गांधी का स्वावलंबन और मोदी की विदेशी निर्भरता की नीति का मेल भला कैसे हो सकता है? इसी तरह जबरिया भूमि अधिग्रहण और कृषि विकास, प्राकृतिक संपदा के दोहन की खुली छूट और पर्यावरण संरक्षण, गंगा सफाई और धार्मिक पाखंड, सत्य-अहिंसा और ‘लव जेहाद’ के झूठे प्रपंच, सहिष्णुता की बात और वैमनस्यता के काम, अमीर को छूट और गरीब से ‘लूट’, पूंजी को शक्ति और श्रमिक को विपत्ति, हिंदुत्व जाप और ऊपर से ‘सबका साथ सबका विकास’ आदि। मोदी के द्वंद्वात्मक अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री नारे में समतामूलक समाज और भाईचारे के कहीं दर्शन नहीं है। विषमता और वैमनस्यता के उभरते सागर में बाजार और समर्थों के बनते द्वीप ही उनका नया दर्शन है।

मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पहली बार आरएसएस प्रमुख के दशहरे के भाषण का दूरदर्शन द्वारा सीधा प्रसारण किया गया और उसकी आलोचना किए जाने पर उसका बचाव किया गया। ‘स्वच्छ भारत’ अभियान के जरिए या अमेरिका में ओबामा के साथ गांधी के सहधर्मी मार्टिन लूथर किंग की प्रतिमा के दर्शन करने भर से उनके आदर्शों के साथ उन्होंने अपने को जोड़ लिया हो, यह मान लेना सही नहीं होगा। जब तक उनकी करनी में यह दिखाई न दे। अभी तक उन्होंने भाजपा के सहयोगी संगठनों और उनसे जुड़े लोगों के विषैले बोलों की आलोचना नहीं की। चीन प्रमुख शी जिनफिंग को साबरमती किनारे दिया गया भोज या ओबामा के साथ मार्टिन लूथर के दर्शन ‘बिजनेस टॉक’ के हिस्से और तामझामी रस्में हैं। व्यापार में हर चीज भुनाई जाती है। इन प्रतीकों में गांधी भी हैं और साबरमती भी। धार्मिक प्रतीक के लिए बनारस है, गंगा और विवेकानंद भी। कांग्रेस-मुक्त भारत के दिए गए नारे के लिए पहले उन्होंने सरदार पटेल को चुना और उनकी विशालकाय प्रतिमा निर्माण के लिए छब्बीस सौ करोड़ का बजट भी दे दिया। प्रतीकात्मक पहलों में चापलूस खबरचियों ने न केवल उन्हें गांधी के समक्ष बैठाने की कोशिश की, बल्कि विदेशियों को भी उनके ‘दाग’ अच्छे लगे।
रामचंद्र शर्मा, तरूछाया नगर, जयपुर

 

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