जनसत्ता 11 नवंबर, 2014: अन्न की बरबादी को व्यापक फलक और संदर्भों में देखे जाने की जरूरत है। हमने गांधी को मालाएं तो खूब पहनार्इं लेकिन उनका कहा भूल गए कि प्रकृति सबकी जरूरत तो पूरा कर सकती है पर एक भी व्यक्ति का लालच नहीं। नवउदारवादी बयार ने कहीं गांधी की इस बेशकीमती सीख को हवा में उड़ा कर इतना दूर तो नहीं कर दिया कि उसे सहेजना हमारे बस की बात नहीं रह गई? कभी कभार यह प्रश्न परेशान और निराश करता है, पर एक होटल में ग्राहकों का किसी ग्राहक से यह कहना कि ‘पैसा भले आपका है, पर यह हमारी राष्ट्रीय संपदा है, जिसे आप बर्बाद नहीं कर सकते’ और होटल में किसी अनजान व्यक्ति का छोड़ा हुआ भोजन करके उससे अधिक पैसे चुका कर जाने वाले सज्जनों की करनी जितना अधिक प्रभाव डालती है वह उपदेश, प्रचार, रस्मअदायगी वाले आयोजनों से ज्यादा सार्थक और प्रभावी है।

इन दोनों उदाहरणों ने मानो नींद से जगा दिया हो। लगभग तीन दशक पहले पुरी के मंदिर में प्रसाद, जो भोजन ही होता है, वह साथियों ने हमारी जरूरत से ज्यादा ही ले लिया था। मेरे कहने पर कि यह तो खत्म नहीं हो पाएगा, स्थानीय साथी ने कहा कि चिंता न करें, यह बर्बाद नहीं होगा। यह प्रसाद है जो अगर बच गया तो उसे कोई ग्रहण कर लेगा। मित्र की इस बात पर भरोसा नहीं हुआ तो वे हमें थोड़ी देर यहां-वहां घुमाते हुए वहीं ले गए। एक संपन्न-सी नजर आनी वाली महिला हमारा छोड़ा हुआ प्रसाद स्वाभाविक सहज भाव से खा रही थी। मित्र ने कह कर नहीं दिखा कर बात समझा दी। पता नहीं आज यह प्रथा वहां बची है या नहीं। यदि तथाकथित आधुनिकता और दिखावे ने इसे खत्म कर दिया हो तो निश्चित ही बहुत बड़ी हानि है समाज की।

आजकल कुछ होटलों में आपके बचे हुए खाने को ‘पैक’ करके दे देते हैं। पहले इस बचे हुए खाने को घर ले जाने के लिए कहना ‘प्रतिष्ठा’ के खिलाफ लगा पर बाद में विचार करने पर यह उपयोगी ही नहीं, सराहनीय लगने लगा। घरों में आठ-दस मित्रों के लिए आयोजित भोजन के समय भी जरूरत से ज्यादा भोजन इस सावधानी के तहत तैयार कर लिया जाता है कि कहीं कम न पड़ जाए। कुछ लोग जरूर बचे हुए भोजन को मित्रों से पूछ कर उनके साथ रख देते हैं जो अच्छी बात है। पर हमारी बलात ओढ़ी हुई लोक लाज ने इसे बहुत ही सीमित और अति घनिष्ट मित्रों तक सीमित रखा है। क्या हम इसे एक सुविचारित परंपरा बना कर व्यापक और सामान्य नहीं बना सकते? इन चंद अपवादों से क्षणिक रूप से ही प्रभावित होकर बाद में वही ढाक के तीन पात से आगे जाकर पहल करके इस प्रवृत्ति को विकसित करने में मुझे नहीं लगता कि हमारी आधुनिकता को कोई गंभीर खतरा पैदा होगा।

 
श्याम बोहरे, कोलार रोड, भोपाल

 

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