जनसत्ता 10 अक्तूबर, 2014: कर्नाटक उच्च न्यायालय ने कुछ अल्पसंख्यक संस्थाओं के विद्यालयों को निर्देश दिया था कि शिक्षा अधिकार कानून के तहत पिछड़े वर्ग के पच्चीस फीसद बच्चों को प्रवेश दें। इस आदेश को देश की शीर्ष अदालत में चुनौती दी गई। ग्यारह सितंबर को कर्नाटक उच्च न्यायालय के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम रोक लगाते हुए देश के प्राथमिक विद्यालयों की दयनीय स्थिति पर गंभीर सवाल उठाए। उसने स्पष्ट कहा कि अगर सरकारी मेडिकल कॉलेज देश में सबसे अच्छे माने जाते हैं तो फिर इसी तरह सरकार प्राथमिक स्तर पर अच्छे स्कूल क्यों नहीं खोलती? सरकार में इच्छाशक्ति हो तो कुछ भी कर सकती है।

जाहिर है, देश के हुक्मरानों ने प्राथमिक विद्यालयों को उनके हाल पर छोड़ देना बेहतर समझा। यदि ऐसा नहीं होता तो उच्चतम अदालत सरकार की इच्छाशक्ति पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाती। आखिर कारण क्या है कि सरकारी मेडिकल कॉलेज, इंजीनियरिंग एवं प्रबंध संस्थानों को देश के अच्छे संस्थानों में गिना जाता है। देश में इस स्तर के तमाम निजी संस्थानों के बावजूद छात्रों और अभिभावकों का झुकाव सरकारी संस्थान की तरफ सर्वाधिक है। जब हम इसके कारणों पर ध्यान देते हैं तो दो मुख्य बातें सामने आती हैं।

पहली, इन प्रतिष्ठित संस्थानों की फीस काफी कम है। यही नहीं, ऐसे संस्थानों की प्रवेश परीक्षा पास करने पर बैंक ऋण आसानी से मिल जाता है जिससे निम्न और मध्यवर्गीय छात्रों को इन संस्थानों में पढ़ने के लिए अर्थ की भूमिका खास मायने नहीं रखती है। लेकिन निजी संस्थानों में योग्यता नहीं बल्कि अर्थ निर्णायक भूमिका में आ जाता है। निजी मेडिकल कॉलेजों की ‘डोनेशन’ के नाम पर लाखों रुपए की धन उगाही प्रमाणित करती है कि ऐसे संस्थान खास वर्ग के लिए आरक्षित हैं। दूसरी बात, सरकारी और निजी मेडिकल कॉलेजों के संसाधनों और अध्यापकों के बीच जमीन-आसमान का अंतर है। यही नहीं, निजी मेडिकल कॉलेजों में अध्यापकों का घोर अभाव है। ‘एप्रुवल’ कहीं और है तो पढ़ा दूसरी जगह रहे हैं।

कम से कम इस प्रकार का फर्जीवाड़ा सरकारी मेडिकल कॉलेजों में नहीं है। हालांकि स्वास्थ्य मंत्रालय और मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआइ) देश के सभी मेडिकल कॉलेजों की स्थिति से अवगत है। बावजूद इसके संस्थान मनमानी करने पर तुले हैं पर एमसीआइ ने चूड़ी टाइट करते हुए मेडिकल की 1170 सीटें घटा दी थीं और कुछ की मान्यता पर तलवार लटकी। किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय लखनऊ की भी 65 सीटों में कटौती हुई थी। लेकिन 29 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने इन सीटों को बहाल कर दिया है। जाहिर है, देश के चंद मेडिकल संस्थान अपनी गरिमा के अनुकूल कार्य करने में सफल रहे हैं। शेष सरकारी सुविधा के भरोसे किसी तरह अपनी प्रतिष्ठा बचाने में लगे है।

सवाल है कि क्या प्राथमिक विद्यालयों को वैसी सुविधा मिल पाती है जिसे बालकों के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक माना जाता है? देश के प्राथमिक विद्यालयों में पांच लाख से अधिक शिक्षकों की कमी है। यदि शिक्षक-छात्र अनुपात की कसौटी पर देखा जाए तो दस लाख से अधिक शिक्षकों की सख्त आवश्यकता है। यह तस्वीर एक-दो दिन में नहीं बनी है। बल्कि हमारे प्राथमिक विद्यालय वर्षों से इस दुखदायी स्थिति से रूबरू हैं। बावजूद इसके शिक्षक विहीन विद्यालय निर्बाध गति से शिक्षा की अलख जगाने में सफल होने का ढोंग करते हैं। क्या राज्य अथवा केंद्र सरकार प्राथमिक विद्यालयों की इस दयनीय स्थिति से परिचित नहीं हैं? टपकती छत, गिरता प्लास्टर, दीवारों पर उगी घास, सड़ांध भरे कमरे जैसे जीर्ण-शीर्ण भवन हमारे प्राथमिक विद्यालय हैं। उत्तर प्रदेश में 65024 प्राथमिक और पूर्व माध्यमिक विद्यालय वर्षों से किराए पर चल रहे हैं जिनमें 34290 विद्यालय आजादी के पहले से एक ही भवन में संचालित हैं। इनका किराया पांच रुपए से नब्बे रुपए के बीच है। यकीनन नारकीय स्थिति में पठन-पाठन जैसे पवित्र कार्य को अंजाम दिया जा रहा है। यह सूरत कब बदलेगी?

 

धर्मेंद्र कुमार दूबे, वाराणसी

 

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