प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जम्मू-कश्मीर की दोनों चुनावी रैलियां: एक श्रीनगर के शेर-ए-कश्मीर स्टेडियम में और दूसरी राया मोड़ जम्मू में सफल ही नहीं, बल्कि एक से बढ़ कर एक रहीं।

दोनों रैलियों में अपार जनसमूह देखने को मिला, जो इस बात का प्रमाण है कि प्रदेश में राजनीतिक समीकरणों का बदलना अवश्यंभावी है! प्रदेश की राजनीति में परिवारवाद या वंशवाद का जो आनंद उठा रहे हैं वे भले ही इन रैलियों को महत्त्वहीन मानें या यह सोचें कि भीड़ जुटाई गई थी, मगर सच्चाई यह है कि जन सैलाब खुद उमड़ा था जिससे लगता है कि जम्मू-कश्मीर के चुनावों के नतीजे इस बार एकदम चौंकाने वाले होंगे।

यह सही है कि मोदी ने जम्मू और श्रीनगर में दिए गए अपने दोनों भाषणों में सीधे-सीधे न पाकिस्तान का कोई जिक्र किया और न ही वे धारा 370 के बारे में कुछ बोले। लगता है, चूंकि पिछले कुछ समय से वादी में धारा 370 चर्चा का विषय बन चुकी थी, इसलिए इस मुद्दे को छेड़ना शायद प्रधानमंत्री ने मौजूं नहीं समझा। यों संवेदनशील मुद्दों को छेड़ने का यह अवसर भी नहीं था। छेड़ते तो शायद वोट ‘खराब’ होते।

राजनीति अथवा कूटनीति में समझदारी और सावधानी का यही तो मतलब है कि जनता के मन को समझा जाए और फिलहाल उसी के हिसाब से आचरण किया जाए। जनता के विपरीत जाने से परिणाम सुखद नहीं निकलते, ऐसा राजनीति के पंडितों का मानना है।

 

शिबन कृष्ण रैणा, अलवर, राजस्थान

 

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