कुछ दिन पहले मैंने अपने घर वालों से कहा कि बहुत रात हो गई है, मेन गेट बंद कर दो, तो दादीजी ने कहा कि छोटा (मेरा छोटा भाई) अभी बाहर है। मैंने कहा कि अभी तक वह बाहर क्या कर रहा है, तो घर वालों ने कहा कि अभी तो ग्यारह ही बजे हैं। मैंने कहा, अगर मैं नौ बजे भी घर के बाहर दरवाजे पर होती हूं तो आप लोग मुझे डांट कर अंदर बुला लेते हैं। सभी बड़ों की लगभग एक जैसी आवाज निकली कि तू लड़की है और वह लड़का…! इसके बाद मेरी आंख में आंसू आ गए और न चाहते हुए भी आदतन डांट खाने के बावजूद खरी-खरी कहने-सुनने की अभ्यासी की तरह मैंने कहा कि क्या मैंने कोई पाप किया है लड़की होकर या फिर यह एक कलंक है मेरे ऊपर लड़की होने का!
आखिर कब तक लोग अपने इसी सोच में जीते रहेंगे। एक तरफ लोग कहते हैं कि लड़की लक्ष्मी का रूप है। इसे हम लड़के के समान दरजा देंगे। लेकिन लड़की को घर आने में आधा घंटा या कुछ मिनट की देरी हो जाती है तो उसके ऊपर सवालों का पहाड़ खड़ा कर दिया जाता है और लड़का पूरे दिन बाहर रहे और फिर शाम या देर रात घर आए तो उससे पूछा जाता है कि बेटा तुमने खाना खाया या नहीं! उससे यह नहीं पूछा जाता कि कहां था, किसके साथ था या फिर कुछ और।
हमारा देश विकासशील से विकसित होने की ओर बढ़ रहा है, मंगलयान की सफलता हाथ में है तो दूसरी ओर लोगों की मानसिकता और आदिम सोच वहीं है। आखिर क्यों स्कूल-कॉलेज से लेकर छात्रावासों तक में लड़के-लड़कियों में फर्क किया जाता है? निर्भया या दामिनियों पर ही कब तक सवाल उठाया जाता रहेगा सभ्य समाज द्वारा कि रात को दोस्त के साथ घूमने की क्या जरूरत थी! सिद्धांत में बड़ी-बड़ी बातें और व्यवहार में आदिम सोच! सुरक्षा किसकी जिम्मेदारी है? अपराधी मानसिकता और अपराधियों को क्या लड़कियां बढ़ावा देती हैं? कभी हमारे पहनावे, तो कभी मोबाइल तो कभी शिक्षा को कोसा जाता है। ऐसा कब तक चलेगा?
उर्वशी गौड़, भजनपुरा, दिल्ली
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