जनसत्ता 9 अक्तूबर, 2014: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘स्वच्छता अभियान’ की शुरुआत को पूरी दुनिया ने उत्कंठाओं और आशंकाओं के साथ देखा होगा। क्योंकि इसका उल्लेख उनके अमेरिका प्रवास के दौरान विश्व संस्था के मंच से भी हुआ है। मेरी उत्कंठा यह समझने में रही कि हमारे यहां इसे एक ‘जन अभियान’ की स्वीकृति मिलती है या यह एक सरकारी कार्यक्रम की तरह संचालित होगा? इसे समझने के लिए मुझे दो अक्तूबर से अधिक महत्त्वपूर्ण उसके बाद के, तीन और चार अक्तूबर के, ये दो दिन लगे।
दिल्ली में या अमदाबाद में ये दो दिन कैसे रहे? मुझे नहीं मालूम। लेकिन मेरे अपने शहर में मंदिरों के बाहर बंटने वाली ‘खिचड़ी’ के ‘डिस्पोजेबल दोने’ हर शुक्रवार की सुबह की तरह पूरी सड़कों पर फैले हुए मिले। क्योंकि गुरुवार की शाम को भक्तों ने अपनी पूरी आस्था के साथ ‘खिचड़ी प्रसाद’ पाया और खाया और दोनों को सड़कों पर फेंका था। फुटपाथ पर रोजगार करने वाले गुमटी व्यापारियों और ठेले और रेहड़ी वालों का त्योहारी धंधा भी खूब अच्छा रहा। उनके धंधे के बाद वहां छूट गए सड़े-गले फल और उनकी टोकरियों से बाहर निकला कचरा भी उसी अधिकार के साथ सड़कों पर फैला हुआ मिला।
इस बार हमारे शहर के मंत्रीजी ने पिछली बार से अधिक ‘रावण’ मारे। इसलिए मरे हुए रावणों के अवशेष भी पिछले दशहरों के मुकाबले इस बार सड़कों पर अधिक दिखे। लेकिन इन पर कोई टिप्पणी भी नहीं की जा सकती, क्योंकि एक तरफ गरीब व्यापारियों के मजबूत संगठन हैं। और दूसरी तरफ आस्थावान भक्तजनों की जबर्दस्त सामूहिकता है। इनकी तरफ उंगली नहीं उठाई जा सकती, क्योंकि ये थोक में वोट जुटाने वाले लोग हैं।
यह स्थिति हमारी शून्य जन-भागीदारी को ही दिखाती है। तो क्या प्रधानमंत्री के इस महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रम को ऐसे ही छोड़ा जा सकता है? खासतौर पर तब, जब यह विश्व मंच पर, स्वयं प्रधानमंत्री का उल्लिखित संकल्प है। इसलिए अब इस अभियान पर पूरी दुनिया की नजर होगी। इसका उत्तर, बासठ हजार करोड़ रुपयों के उस प्रावधान में उपलब्ध दिखता है, जो पहले से ही किया जा चुका है। और अगर यह सही उत्तर है तो इस कार्यक्रम के संचालन के लिए उन एजेंसियों की शिनाख्त भी की जा चुकी होगी जिनके जरिए इसकी सफलता को सुनिश्चित किया जाएगा।
इसे देखने और समझने के लिए फिर हमारे सामने इससे पहले के कुछ ऐसे ही या इससे मिलते-जुलते अन्य राष्ट्रीय कार्यक्रमों के उदाहरण होंगे जिनके लिए इसकी तरह के भारी-भरकम आर्थिक प्रावधान किए गए थे। अपने देसी स्रोतों से भी और विश्व संगठनों के स्रोतों से भी। ऐसे राष्ट्रीय कार्यक्रमों में सब से ऊपर राष्ट्रीय साक्षरता का कार्यक्रम हमें दिखता है, जिसके क्रियान्वयन और उसकी सफलता को सरकारी प्रयासों से सुनिश्चित किया गया।
अगर इस तरह से देखने और समझने में कोई दृष्टि-दोष नहीं होता तो, ‘गंगा सफाई’ की महत्त्वाकांक्षी योजना को भी इस स्वच्छता अभियान से अपेक्षित परिणामों के साथ जोड़ कर देखा जा सकता है।
सतीश जायसवाल, बिलासपुर
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