जनसत्ता 14 अक्तूबर, 2014: मानव जीवन में हर्ष और उल्लास के लिए पर्वों और त्योहारों का अपना महत्त्व है लेकिन उसके साथ अवैज्ञानिक मिथकों को जोड़ने से हमें बचना चाहिए। ऐसे ही मिथकों की वजह से हमने गंगा को गंदा किया है। अभी ‘दीपावली’ आने वाली है जिसे हमने पटाखों के आविष्कार के बाद ‘पटाखेवाली’ में तब्दील कर दिया है। हर वर्ष हम उस दिन शोर और अन्य घातक रसायनों से अपने वातावरण को लबालब भर देते हैं। त्योहार अवश्य मनाइए लेकिन उस दकियानूसी सोच को एक तरफ रख दीजिए जिसमें बहू के मायके से ‘करवा’ न आने पर नाग देवता को उसकी मदद करनी पड़ी!
संस्कृति की दुहाई देकर उस सोच को बढ़ावा न दें जो रामायण सीरियल में सीता और राम की भूमिका करने वाले लोगों को वास्तविक राम और सीता मानने को बढ़ावा देती है। पिछले दिनों कई परिवारों में पति-पत्नी के बीच उल्टा इसलिए मनमुटाव हो गया कि पति के पास अच्छा उपहार देने के लिए पैसे नहीं थे। समाचार के अनुसार एक महिला ने करवा चौथ के दिन अपनी जान इस गुस्से में गंवा दी कि उसके पति ने उसे इस त्योहार को मनाने के लिए पैसे नहीं दिए। शेष जिसे जैसा करना है, वैसा करे। खयाल इतना जरूर रहे कि आप कुछ ऐसा न करें जिससे समाज इन बातों में यकीन करने लगे कि सांप के काटे से मृत लड़की को ओझा फिर से जिंदा कर सकते हैं।
सुभाष लखेड़ा, द्वारका, नई दिल्ली
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