मानवाधिकारों को लेकर अक्सर विवाद बना रहता है। यह समझ पाना मुश्किल हो जाता है कि क्या वाकई में मानवाधिकारों को लेकर समाज और सरकारें गंभीर हैं। यह कितना अफसोसजनक है कि तमाम प्रादेशिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सरकारी और गैर-सरकारी मानवाधिकार संगठनों के होने बावजूद मानवाधिकारों का परिदृश्य तमाम तरह की विसंगतियों और विद्रूप से भरा पड़ा है।

वर्तमान समय में देश में जिस तरह का माहौल आए दिन देखने को मिलता है ऐसे में मानवाधिकार और इससे जुड़े आयामों पर चर्चा महत्त्वपूर्ण हो जाती है। देश भर में मॉब लिंचिंग की घटनाएं, बिहार के मुजफ्फरपुर और उसके तुरंत बाद उत्तर प्रदेश के देवरिया में आश्रय गृह की बच्चियों के साथ हुए वीभत्स कृत्य देश में मानवाधिकारों की धज्जियां उड़ाते दिखते हैं।

कई विवादास्पद घटनाओं जैसे- आॅपरेशन ब्लू स्टार के बाद उत्पन्न दंगे, शाहबानो मामले के बाद मौलानाओं में भड़की विरोध की चिंगारी, बाबरी मस्जिद ध्वस्त होने के बाद देश भर में हुए दंगे, गुजरात में हुए दंगे और दूसरी वजहों से अराजकता, हत्याएं और दंगे आदि के समय भी देश के नागरिकों के मानवाधिकारों का हनन किसी से छिपा नहीं है।

व्यक्तिगत स्तर पर किसी देश और व्यक्तियों के समग्र विकास के लिए मानव अधिकार अत्यंत महत्त्पूर्ण हैं। जीवन का अधिकार, किसी भी विचार को मानने का अधिकार, आंदोलन की स्वतंत्रता, आंदोलन से मुक्ति आदि। हर एक अधिकार किसी भी मनुष्य की भलाई में एक प्रमुख भूमिका निभाता है।
प्रत्येक व्यक्ति के कुछ आधारभूत व प्राकृतिक अधिकार होते हैं, जो उसके जीवन के सार्थक अस्तित्व को बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण होते हैं।

राज्य के समझौतावादी विचारों के प्रतिपादक इस बात पर बल देते हैं कि आधुनिक राष्ट्र-राज्य का विकास उन प्राकृतिक अधिकारों की संरक्षण के साथ ही हुआ है। यह घोषणा अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि सरकार को शासन करने का अधिकार अपने शासितों की सहमति से मिलता है। यह सामाजिक अनुबंध के सिद्धांत का एक स्पष्ट और मुखर आवेदन है। इसे केवल शासक के चयन में ही नहीं, बल्कि एक राज्य के निर्माण में भी लागू किया गया है। ऐसा क्रांतिकारी कदम केवल नई दुनिया में ही जगह ले सकता है।
’शैलेंद्र सिंह, प्रतापनगर, जयपुर, राजस्थान